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________________ 10...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त (दण्ड) देने का नियम है। कुछ दोष आलोचना मात्र से निराकृत हो जाते हैं, कुछ दोष प्रतिक्रमण से दूर किये जाते हैं तो कुछ दोष आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों के द्वारा नष्ट किये जाते हैं। कई अपराध विवेक प्रायश्चित्त से, कुछ कायोत्सर्ग से, कई तप से तो कुछ दोष मूल, अनवस्थाप्य या पारांचिक प्रायश्चित्त से क्षय किये जाते हैं। पूर्वाचार्यों ने प्रायश्चित्त दान की व्यवस्था इस भाँति की है कि दशविध प्रायश्चित्त द्वारा सभी तरह के दुष्कृत्यों से परिमुक्त हुआ जा सकता है। व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र, जीतकल्पसूत्र, निशीथसूत्र आदि में प्रायश्चित्त योग्य अपराधों एवं तद्योग्य प्रायश्चित्त का विस्तृत वर्णन है। यहाँ दसविध प्रायश्चित्त का क्रम से निरूपण किया जायेगा। 1. आलोचना योग्य दोष __ अपराध को तद्प स्वीकार करके उसे यथावत गुरु के सामने प्रकट करना आलोचना कहलाता है। जिन अपराधों की शुद्धि आलोचना करने मात्र से हो जाती है उसे आलोचना योग्य प्रायश्चित्त कहते हैं। व्यवहारभाष्य', विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर के अनुसार आहारवस्त्र-पात्र-औषधि आदि ग्रहण करने, मल-मूत्र का विसर्जन करने, विहार करने, चैत्यवंदन करने, अन्य उपाश्रय में रहे हुए साधुओं को वंदन करने, प्रत्याख्यान देने अथवा राजा आदि के यहाँ किसी शुभ कार्य की मंत्रणा हेतु उपाश्रय से सौ कदम बाहर जाने पर और नियमित सामान्य क्रियाओं में लगने वाले दोष आलोचना करने मात्र से दूर हो जाते हैं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के अनुसार प्रत्युपेक्षण, प्रमार्जन, वैयावृत्य, स्वाध्याय, तपश्चरण, आहार-विहार आदि अवश्यकरणीय क्रियाओं में जागरूक रहते हुए भी प्रमादवश जो अतिचार लगते हैं उनकी शद्धि आलोचना मात्र से हो जाती है।10 तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार विद्या और ध्यान के साधनों को ग्रहण करने आदि में जो दोष लगता है उसकी शुद्धि आलोचना प्रायश्चित्त से होती है।11 लाभ- आलोचना प्रायश्चित्त से विशद्ध हए मनिजनों का संयम निर्मल होता है। छद्मस्थ साधु का उपयोग अयथार्थ या विपरीत भी हो सकता है इसलिए आचार्य आदि बहश्रुतों के पास आलोचना करता हुआ मुनि ऊहापोह के द्वारा स्वयं ही शुद्ध-अशुद्ध को जान लेता है अथवा वहाँ आने-जाने वाले अन्य
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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