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अध्याय-2 जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद
दोष विशुद्धि के लिए किया जाने वाला आभ्यन्तर तप रूप अनुष्ठान प्रायश्चित्त कहलाता है। आगमयुग से ही अनेकश: आचार्यों ने इस विषय पर अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। देश-काल परिस्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त देने-लेने के व्यवहार में परिवर्तन भी हुए लेकिन इसका मूल प्रयोजन एक ही रहा। जीवों की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ एवं पात्रता के आधार पर प्रायश्चित्त करने के अनेक मार्ग शास्त्रों में उल्लिखित हैं, ताकि प्रत्येक जीव विशुद्ध मार्ग पर अग्रसर हो सके। प्रायश्चित्त की विविध कोटियाँ
स्थानांगसूत्र व्यवहारभाष्य प्रवचनसारोद्धार पंचाशकप्रकरण मूलाचार अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त दस प्रकार का बतलाया गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं
आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे ।
तव-छेय-मूल-अणवट्ठया, य पारंचिए चेव ।। 1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. तदुभय 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य और 10. पारांचिक।
दिगम्बर परम्परा के मूलाचार आदि में नौवाँ परिहार और दसवाँ श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त कहा गया है। इस तरह अंतिम के दो प्रायश्चित्त नामों में भेद है।
प्रायश्चित्त के दसविध भेद बताने के पीछे मूल प्रयोजन यह है कि दोष कई प्रकार के होते हैं उन दोषों की शुद्धि एक ही प्रकार के प्रायश्चित्त से नहीं हो सकती। दोषों के अनुरूप दण्ड विधान होना चाहिए। लौकिक जगत में भी अपराध के अनुसार दण्ड दिया जाता है। छोटे-बड़े अपराधों के लिए पृथकपृथक दण्ड की व्यवस्था है इसी भाँति धार्मिक न्यायालय में भी दोषों की भिन्नता