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प्रायश्चित्त का अर्थ एवं स्वरूप विमर्श...5 उपरोक्त वर्णन से सुस्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने भाव विशोधक एवं कर्म विनाशक कर्म को प्रायश्चित्त कहा है जबकि दिगम्बर आचार्यों ने अपराध विशुद्धि, तप श्रद्धान कारक और लोकचित्तग्राही कर्म को प्रायश्चित्त माना है। गूढार्थतः दोनों परम्परा के आचार्यों का अभिप्राय समान ही है। प्रायश्चित्त का स्वरूप एवं परिभाषाएँ
जिससे संचित पापकर्म नष्ट होते हैं, जो चित्त का प्राय: विशोधन करता है और आभ्यन्तर तप का प्रथम भेद रूप है वह प्रायश्चित्त है। इन्हीं परिभाषाओं से मिलती-जुलती अन्य अनेक परिभाषाएँ दृष्टिगत होती हैं जो इस प्रकार है
आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रायश्चित्त का स्वरूप दिग्दर्शित करते हुए कहा हैप्रायश्चित्तं ति तवोजेण, विसुज्कादि हु पुव्वकमपावं ।।
प्रायाच्छित्तं पत्तो त्रि, तेण वुत्तं दसविहं ।।184।। जिस तप के द्वारा पर्वकाल में संचित पापकर्म नष्ट होकर आत्मा निर्मल होता है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं।
आचार्य वट्टकेर ने कुन्दकुन्दाचार्य का अनुसरण करते हुए प्रायश्चित्त का पूर्वोक्त स्वरूप ही बतलाया है। सम्यक् बोध के लिए उद्धृत पाठ इस प्रकार है13
पायच्छित्तं त्ति तवो जेण, विसुज्झदि हु पुवकयपावं ।
पायच्छित्तं पत्तो ति, तेण वुत्तं दसविहं तु ।। पं. आशाधरजी ने अतिचार शुद्धि को प्रायश्चित्त कहा है। उसकी स्पष्ट परिभाषा यह है
यत्कृत्याकरणे वाऽवर्जने च रजोऽर्जितम्।
सोऽतिचारोऽत्र तच्छुद्धिः, प्रायश्चित्तं वशात्म तत् ।। आवश्यक आदि क्रियाओं के न करने पर और हिंसा आदि दुष्कार्यों का वर्जन न करने पर जिस पाप का सेवन होता है उसे अतिचार कहते हैं और उन अतिचारों की शुद्धि जिस विधान के द्वारा होती है उसे प्रायश्चित्त कहना चाहिए।14
चारित्रसार में चामुण्डराय ने प्रायश्चित्त का यही अर्थ उल्लिखित किया है।15 पूज्यपाद के अनुसार जिससे प्रमाद आदि दोषों का परिहार हो, वह