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________________ 4...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण "प्रायशो वा चित्तम् जीवं शोधयति कर्म मलिनं विमली करोति तेन कारणेन प्रायश्चित्त मित्युच्यते" - जो क्रिया कर्म मल से युक्त चैतन्य भावों का प्रायः शोधन करती है, अध्यवसायों को निर्मल करती है उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है। इस व्युत्पत्ति में भी प्रायश्चित्त को कर्म विनाशक माना गया है। • राजवार्तिककार ने श्वेताम्बर आचार्यों से किंचित भिन्न अर्थ करते हुए कहा है कि ___ "प्रायः साधुलोकः, प्रायस्थ यस्मिन्कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः, प्रायक्य चित्तं प्रायश्चित्तम् अपराधविशुद्धि रित्यर्थः।" प्राय:- साधुलोक अर्थात जिस क्रिया में साधुओं का चित्त हो वह प्रायश्चित्त है अथवा प्रायः = अपराध, चित्त = शुद्धि अत: जिस क्रिया से अपराध की विशुद्धि हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं।10 .. • पं. आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत में प्रायश्चित्त के निरुक्तिगत निम्न अर्थ बतलाये हैं उनमें पहला अर्थ राजवार्तिककार की पुष्टि करता है जैसा कि - प्रायो लोकस्तस्य चित्तं, मनस्तच्छुद्धिकृत्क्रिया। . प्राये तपसि वा चित्तं, निश्चयस्तन्निरुच्यते ।। - यहाँ 'प्रायः' का अर्थ है लोक और 'चित्त' का अर्थ है मन। लोक का तात्पर्य अपने वर्ग के लोगों से है। तदनुसार जिस क्रिया के द्वारा साधर्मी और संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी ओर से शुद्ध हो जाये, उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं। द्वितीय अर्थ के अनुसार 'प्रायः' शब्द का एक अर्थ तप है और 'चित्त' का अर्थ निश्चय अर्थात यथायोग्य उपवास आदि तप में यह श्रद्धान करना कि यह करणीय है अथवा निश्चय संयुक्त तपस्या को प्रायश्चित्त कहते हैं।11 • धवलाटीका में 'प्राय:' पद को लोकवाची और 'चित्त' को मनसंज्ञक कहा गया है। इस मन को ग्रहण करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है।12 • आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में अपराध की विशुद्धि करने वाले कर्म को प्रायश्चित्त कहा है जैसा कि पाठ है- "अपराधो वा प्रायस्तेन विशुद्धयति।"
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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