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प्रायश्चित्त का अर्थ एवं स्वरूप विमर्श... 3
और कर्म-मल को दूर करता है, धो डालता है उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है। 4 अथवा जिससे आचार रूप धर्म उत्कर्ष को प्राप्त होता है, ऐसा प्रायः मुनि जन कहते हैं। इस कारण से अतिचारों को दूर करने के लिए जिसका चिन्तनस्मरण किया जाये उसे प्रायश्चित्त कहते हैं।
अथवा प्रकर्षेण अयते गच्छति अस्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनलोकस्तेन चिन्त्यते स्मर्यतेऽतिचारविशुद्धयर्थमिति निरुक्तात् प्रायश्चित्तम् । 5
करते
• आचार्य अभयदेवसूरिकृत स्थानांगटीका में प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति हुए कहा गया है कि "पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तं विशोधकत्वाद् वा प्राकृते पायच्छित्त मिति । '
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दशवैकालिकनियुक्ति में भी प्रायश्चित्त को पाप कर्म का छेदक ही बतलाया है। स्पष्टता के लिए व्युत्पत्ति पाठ निम्न है
"पापं छिनत्तीति पापच्छित् अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुद्धमस्मिन्निति प्रायश्चित्तमिति । "7
• जीतकल्पचूर्णि में सिद्धसेनसूरि ने प्रायश्चित्त की जो व्युत्पत्ति दी है वह ऊपर वर्णित अर्थ की ही पुष्टि करती है । उसका मूल पाठ यह है
“पावं छिन्दन्तीति पायच्छित्तं । चित्तं वा जीवो भण्णइ । पाएण वा वि चित्तं सोहइ अइयार - मल-मइलियं, तेण पायच्छित्तं । "
जो पाप समूह का छेदन करता है अथवा चैतन्ययुक्त अध्यवसायों का प्रायः शोधन करता है और उसे अतिचार मल से रहित करता है वह प्रायश्चित्त है |
• आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकटीका में प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति इस प्रकार बतलायी है- "पापं कर्मोच्यते, तत् पापं छिनत्ति यस्मात् कारणात् 'पायच्छित्तं' ति भण्यते तेन कारणेन संस्कृते तु पापं छिनत्तीति पायच्छिदुच्यते" अर्थात पाप को कर्म कहते हैं जिस कारण से उस पाप को छेदा (नष्ट किया) जाता है उसे प्राकृत में 'पायच्छित्त' तथा संस्कृत में 'प्रायश्चित्त' कहते हैं।' यहाँ प्रायश्चित्त का अर्थ पापकर्म को विध्वंस करने वाला माना गया है।
• पंचाशकटीका में प्रायश्चित्त शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार की गई है -