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6 ... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
प्रायश्चित्त है।16 शुभचन्द्राचार्य के अनुसार प्रायश्चित्त वह श्रेष्ठ प्रक्रिया है जिसके माध्यम से अपराधी आत्मा पूर्वबद्ध पाप कर्मों से परिमुक्त होकर पूर्व गृहीत व्रतों से परिपूर्ण हो जाती है। 17
लाटीसंहिताकार ने सुगम शैली में प्रायश्चित्त की व्याख्या करते हुए
कहा है
प्रायो
दोषेऽप्यतीचारे, गुरौ सभ्यग्निवेदिते । उद्दिष्टं तेन कर्त्तव्यं, प्रायश्चित्तं तपः स्मृतम् ।।
मर्यादित जीवन जीते हुए भी यत्किंचित अतिचारों (दोषों) का सेवन हो जाये तो उन्हें गुरु के समक्ष भली भाँति निवेदित कर उसकी शुद्धि हेतु दिया गया दण्ड स्वीकार करना, प्रायश्चित्त तप कहा जाता है । 18
इसी तरह हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र स्वोपज्ञविवरण, प्रायश्चित्तसंग्रह, उपासकाध्ययन, आचारसार आदि ग्रन्थों में भी प्रायश्चित्त का स्वरूप परिलक्षित होता है।
उपर्युक्त परिभाषाओं से सुस्पष्ट होता है कि प्रायश्चित्त वह तपोनुष्ठान है जिसके समाचरण से इहभव में उपार्जित एवं परभव में संचित समस्त प्रकार के दुष्पाप आत्मा से पृथक् हो जाते हैं।
प्रायश्चित्त के एकार्थवाची
व्यवहारभाष्य में प्रायश्चित्त के चार पर्यायवाची नाम बतलाये गये हैं 19_ 1. व्यवहार 2. आलोचना 3. शोधि और 4. प्रायश्चित्त ।
आगम आदि पाँच व्यवहार की प्रवृत्ति मुख्यतः प्रायश्चित्त दान के उद्देश्य से ही होती है। आलोचना, प्रायश्चित्त का प्रारम्भिक चरण है। प्रायश्चित्त आलोचना पूर्वक ही होता है, बिना आलोचना के प्रायश्चित्त असंभव है। कदाच कोई व्यवहृत भी कर ले तो वह विफल होता है प्रायश्चित्त से आत्म परिणामों की शुद्धि होती है इसलिए इसे शोधि कहा है।
आचार्य वट्टकेर रचित मूलाचार में प्रायश्चित्त के समान अर्थबोधक आठ नाम कहे गये हैं20_
पोराणकम्म खवणं, खिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं । पुंच्छण मुछिवण छिदणं त्ति, पायच्छित्तस्स णामाई ||