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प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय अनुसंधान...॥
प्रवर्तित हैं? प्रायश्चित्त दान के विविध प्रतीकाक्षर, प्रायश्चित्त देने योग्य उपवास आदि तपों के मानदंड की तालिका इस तरह के गूढार्थ विषयों को स्पष्ट किया गया है।
तीसरे अध्याय में प्रायश्चित्त देने-लेने के प्रभावों का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से विचार किया गया है।
चौथा अध्याय आलोचना विधि के मौलिक बिन्दुओं को उजागर करता है। जैसे- आलोचना किन स्थितियों में की जाए? आलोचना किसके समक्ष करें? आलोचना की आवश्यकता क्यों? आलोचना में किन योग्यताओं का होना जरूरी? आलोचना किस क्रम से करें? आलोचना कब करें? आलोचना न करने के दुष्परिणाम आदि का शास्त्रोक्त वर्णन किया गया है।
पाँचवें अध्याय में आलोचना एवं प्रायश्चित्त के उद्भव-विकास की क्रमिक चर्चा की गई है।
छठवें अध्याय में पूर्वापर क्रम को ध्यान में रखते हुए जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ तथा उसका तुलनात्मक पक्ष दर्शाया गया है।
प्रायश्चित्त दान का मुख्य अधिकारी आचार्य या गीतार्थ मुनि को माना गया है। दूसरे, वर्तमान में जीत व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त दिया जाता है अत: इस अध्याय में श्वेताम्बर मान्य विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर के मतानुसार जीत व्यवहारबद्ध प्रायश्चित्त कहा गया है।
इसमें प्रायश्चित्त की क्रमबद्ध विवेचना की गई है जिससे जन साधारण भी सुगमता पूर्वक इस विषय का ज्ञान प्राप्त कर पापों से विरत हो सकें।
सातवें अध्याय में उपसंहार की दृष्टि से प्रायश्चित्त दान की विविध कोटियों का आगमानुसार निरूपण किया गया है। ____ इस तरह प्रस्तुत शोध कृति में प्रायश्चित्त आलोचना के कई विषयों को स्पष्ट करने का लघुतम प्रयास किया गया है। हालांकि प्रायश्चित्त दान का अधिकार आचार्य एवं गीतार्थ मुनिवरों को होता है तथा आलोचना भी तद्योग्य गुरु के समक्ष ही करनी चाहिए, किन्तु इस सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी तो सामान्य गृहस्थ रख सकता है जिससे वह दोषों से बचते हुए निर्दोष जीवन जी