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।...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
सूक्ष्म है। मन के सूक्ष्मातिसूक्ष्म असंख्य परिणामों के अंतर को जानना अति कठिन है फिर विषय-कषायजन्य तथा मनोगत भावजन्य अपराधों का विश्लेषण कर उनके परिणामों को जानना तो और भी कठिन है, क्योंकि संख्यातीत भावों की गति विचित्र है। अत: केवलज्ञान के बिना चार ज्ञान के ज्ञाता के लिए भी इन संख्यातीत पाप प्रवृत्तियों की प्रायश्चित्त-विधि को जानना कठिन है। फिर भी इस विषम काल में श्रुत के अध्येता गीतार्थ द्वारा अथवा श्रुत के अध्ययन द्वारा प्रायश्चित्त-विधि को किंचित् रूप से जाना जा सकता है अत: प्रायश्चित्त ग्रहण करने से पूर्व गीतार्थ गुरु की गवेषणा अवश्य करनी चाहिए।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि लौकिक व्यवहार में दिया जाने वाला दण्ड और लोकोत्तर जगत में व्यवहत प्रायश्चित्त(दण्ड) दोनों में अन्तर है। प्रायश्चित्त में अपराधी व्यक्ति अपनी इच्छा से दोषों को प्रकट कर उसे स्वीकार करता है
और उससे मुक्त होने के लिए गुरु से प्रायश्चित्त देने की प्रार्थना करता है। गुरु भी उस दोष से छुटकारा पाने की विधि बताते हैं जबकि बाह्य जगत में अपराधी व्यक्ति अपनी गलतियों को विवशता से प्रकट कर दण्ड को पराधीनता से स्वीकारता है। उसके मन में दुष्कृत्य के प्रति किसी प्रकार की ग्लानि नहीं होती। इस तरह सामान्य अपराधी अपने अपराध को दोष से मुक्त होने के लिए नहीं, किन्तु दूसरों के भय से स्वीकार करता है। सरकारी दण्ड ऊपर से थोपा जाता है परन्तु प्रायश्चित्त अन्तर्मन से ग्रहण किया जाता है। आचार संहिता की भिन्नता के कारण राजनीति में मारने, पीटने, मृत्युदण्ड आदि देने का विधान है तो धर्मनीति में तपस्या आदि प्रायश्चित्त का प्रावधान है।
प्रायश्चित्त की महत्ता एवं रहस्यों को जन-जन तक पहुँचाने हेतु इस शोध कार्य को निम्न सात अध्यायों में वर्गीकृत किया गया है
इस खण्ड के पहले अध्याय में प्रायश्चित्त के विभिन्न अर्थों का निरूपण करते हुए पूर्वाचार्यों के अनुसार प्रायश्चित्त का स्वरूप, परिभाषा एवं उसके समानार्थक शब्दों का उल्लेख किया गया है।
दूसरा अध्याय प्रायश्चित्त के प्रकारों एवं उपभेदों से सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप से किस दोष के लिए कौनसा प्रायश्चित्त? प्रायश्चित्त कौन दे सकता है? कौन, किस प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है? वर्तमान में कितने प्रायश्चित्त