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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...227 शरणागतजन्तूनां सत्यां शक्तवरक्षणात्।।46।। निन्द्यकर्मकृतेश्चैव गुर्वाज्ञालङ्घनादपि। पितृमातृणां संतापात्तीर्थमार्ग-निवर्तनात्।।47।। शुद्धधर्मापहासाच्च हास्यार्थं परकोपनात्। इत्यादिदोषात्संशुद्धिर्दानादेव हि जायते।।48।। तत्संपत्त्यनुसारेण व्यलीकानुमतेरपि। गुरवो विप्रसाधुभ्यो दापयन्ति तदर्पयेत्।।4।।
(आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 259) यतियों के सत्कार्यों का विरोध करे, पापकार्यों में उनकी सहायता करे, उनसे यौन सम्बन्ध स्थापित करे, प्रमादवश साधु की निन्दा करे, शक्ति होने पर शरणागत जीवों की रक्षा न करें, निन्दनीय कर्म का सेवन करे, गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करे तथा माता-पिता को पीड़ित करे, तीर्थयात्रा से बीच में ही लौट आए, मस्करी हेतु शुद्धधर्म का उपहास करे, दूसरों पर क्रोध करे-इत्यादि दोषों की शुद्धि शक्ति अनुसार दान देने से होती है। झूठी साक्षी दें, तो उस पाप की विशुद्धि के लिए विप्रों को दान दिया जाए एवं गुरुओं को आहार आदि दिया जाए। विशोधन योग्य प्रायश्चित्त
उषित्वा म्लेच्छदेशेषु म्लेच्छीभूय परिग्रहात्। म्लेच्छबन्दिनिवासाच्च प्रमादाभक्ष्यभक्षणात्।।50।। अपेयपानतश्चैव म्लेच्छादिसहभोजनात्। परजातिप्रवेशाच्च विवाहकरणादिभिः।।51।। महाहत्याविरचनात्कुप्रतिग्राहिसंगमात्। कुप्रतिग्रहतः शुद्धि स्यात्पूर्वोक्ताद्विशोधनात्।। 52।।
(आचारदिनकर, भा., 2पृ. 259) म्लेच्छदेश में उत्पन्न म्लेच्छ स्त्री का परिग्रहण करें, म्लेच्छ बन्दीजनों के साथ निवास करें, प्रमाद के कारण अभक्ष्य वस्तुओं का भक्षण करें, अपेय द्रव्य का पान करें, म्लेच्छ आदि के साथ भोजन करें, अन्य जाति में प्रवेश करें, अन्य जाति में विवाह करें, कुप्रतिग्राही (दुराचारी) के साथ महाहत्या का षड्यन्त्र रचें, महाहत्या करें, कुप्रतिग्राही का साथ करें-इन सभी की शुद्धि इसमें बताई गई विशोधन विधि से करें।
दिगम्बर ग्रन्थों में उल्लिखित प्रायश्चित्त दान जिस प्रक्रिया के द्वारा अध्यवसायों का विशोधन एवं संचित पाप कर्मों का पृथक्कीकरण किया जाता है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। दिगम्बर आम्नाय में भी