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226 ... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
द्वितीयेनि शुद्ध्यति । 143।। एवं भोजनकाले च श्वमार्जाररजस्वलाः । स्पृष्ट्वा चर्मास्थ्यन्यजातीन् शुद्धिर्जीवाङ्ग - वद्भवेत् ।। 4411
( आचारदिनकर भा. 2, पृ. 259 ) औषधि के निमित्त, गुरु आदि के आदेश से, दूसरों के बन्धन में होने पर, महत्तरा अभियोग की दशा में तथा प्राण नाश की सम्भावना हो - ऐसी दशा में, जिन गोत्रों का न तो आहार किया जाता है और न ही कभी पानी पीया जाता है, ऐसे व्यक्तियों के घर का आहार- पानी ग्रहण करने पर तीन उपवास का प्रायश्चित्त आता है। ब्राह्मण यदि किसी अन्य जाति के ब्राह्मण का आहार खाता है, तो उसे पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है । ब्राह्मण क्षत्रिय का आहार ग्रहण करता है, तो एकासन का प्रायश्चित्त आता है। ब्राह्मण वैश्य का आहार ग्रहण करता है, तो उपवास का प्रायश्चित्त आता है तथा शूद्र का आहार ग्रहण करने पर पाँच उपवास का प्रायश्चित्त आता है। शिल्पी का आहार ग्रहण करने पर दस उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
इसी प्रकार क्षत्रिय यदि शूद्र का अन्न खाए, तो उसकी शुद्धि भी उसी प्रकार होती है। वैश्य यदि शूद्र का अन्न खाए, तो उसकी शुद्धि भी उसी प्रकार होती है। वैश्य यदि शूद्र एवं कारु (शिल्पी) का अन्न खाए, तो आयम्बिल करने से शूद्र होता है। शूद्र यदि कारु का अन्न खाए, तो पुरिमड्ढ करने से. शुद्ध • होता है। म्लेच्छ से संस्पर्शित भोजन का सेवन करे, तो उपवास करने से शुद्धि होती है। अन्य गोत्र के व्यक्ति के यहाँ सूतक का अन्न खाने पर भी उपवास करने से ही शुद्धि होती है। ब्राह्मण, स्त्री, भ्रूण, गाय एवं साधु का घात करने वाले के यहाँ का अन्न खाने पर विद्वानों ने उसकी शुद्धि के लिए दस उपवास का प्रायश्चित्त बताया है। आहार के मध्य में प्राणियों के शरीर के अंग (जीवांग) दिखाई देने पर भी वह आहार उसी प्रकार कर ले, तो दूसरे दिन एकासना करने से उस पाप की शुद्धि होती है। इसी प्रकार भोजन के समय कुत्ता, बिल्ली, रजस्वला स्त्री, चर्म, अस्थि एवं अन्य जाति के लोगों का स्पर्श होने पर भी उसकी शुद्धि जीवांग की शुद्धि के समान ही करें।
दान योग्य प्रायश्चित्त
यतिभिश्च विरोधाच्च सौहृदात्पापकारिभिः । सम्बन्धिन्यादिसंभोगात्प्रमादात्साधुनिन्दनात् । 145 ।। सत्यां विपुलशक्तौ च दीनाद्यप्रतिपालनात् ।