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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...225 करणीयाहं द्रव्यप्रायश्चित्तं संपूर्णम्।।।। भेषजार्थं च गुर्वादिनिग्रहे परबन्धने। महत्तराभियोगे च तथा प्राणार्तिभञ्जने।।35।। यद्यस्य गोत्रे नो भक्ष्यं न पेयं क्वापि जायते। तद्भक्षणे कृते शुद्धिरुपवासत्रयान्मता।।36।। अन्यद्विजाशनं भुक्त्वा पूर्वाह्नाच्छुद्ध्यति। द्विजः। शुद्धयत्येकान्नभोजी च भुक्त्वा च क्षत्रियाशनम्।।37।। वैश्याशनं पुनर्भुक्त्वा शुद्धः स्यादुपवासकृत्। शूद्रान्नभोजनाच्छुद्धिस्तस्यान-शनपञ्चकात्।।38।।
(आचारदिनकर, भा.2, पृ. 259) विरुद्ध आचरण से उत्पन्न दोषों की शुद्धि करने योग्य प्रायश्चित्त से होती है। यदि शूद्र का दान ग्रहण करें, तो ब्राह्मण को गौ प्रदान करने से उस दोष की शुद्धि होती है। शूद्र सेवी क्षत्रिय की शुद्धि भी उसी प्रकार होती है। ब्राह्मण, शास्त्र के विरुद्ध व्यवहार करें तथा शास्त्र के विरुद्ध ज्योतिष का कथन करें, तो एक मास का मौन करने मात्र से उसकी शुद्धि हो जाती है। स्वाध्याय न करने वाले विप्र की शुद्धि एक पक्ष का मौन करने से होती है। विप्र, क्षत्रिय एवं वैश्य के कण्ठ का सूत्र टूट जाए या प्रमादवश कहीं गिर जाए, तो वह न तो बोले और न ही चले। अन्य सूत्र धारण करके ही पैरों से चले और मुँह से बोले। उसकी शुद्धि के लिए तीन दिन तक जौ का सेवन करे तथा मन्त्र का जाप करे। यदि क्षत्रिय दीन-दुःखियों को दान न दे, स्वयं की प्रशंसा एवं दूसरों की निन्दा करे, तो तीन दिन तक परमात्मा की पूजा एवं उपवास करे तथा सोने का दान देकर उस पाप की विशुद्धि करे। यदि क्षत्रिय संग्राम, गौग्रह (अर्थात् गाय की रक्षा) तथा युद्धस्थान में युद्ध न करे, उससे निवृत्त या शान्त होकर बैठ जाए, तो उसकी शुद्धि दान देने से होती है। युद्ध में शत्रु सैन्य का नाश करने पर उस पाप की विशुद्धि स्नान करने से हो जाती है।
तप योग्य प्रायश्चित्त
कारुभोजनतः शुद्धिर्दशानशनतो ध्रुवम्। क्षत्रियश्चैव शूद्रान्नं भुक्त्वा प्रायेण शुद्ध्यति।।3।। वैश्यस्तु शूद्रकावन्नं भुक्त्वा चाम्लेन शुद्ध्यति। शूद्रश्च कारुकान्नादः शुद्ध पूर्वाह्नतो भवेत्।।40।। म्लेच्छस्पृष्टान्नभोगे च शुद्धिः स्यादुपवासतः। अन्यगोत्रे सूतकान्नं भुक्त्वा शुद्धिस्तथैव हि।।41।। ब्रह्मस्त्रीभ्रूणगोसाधुघातिनामन्नभोजनात्। दशोपवासतः शुद्धिं कथयन्ति पुरातनाः।।42।। आहारमध्ये जीवाङ्गं दृष्ट्वान्नं तत्तदेव हि। भोक्तव्यमेकभक्तेन