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224...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
जिन पापों की शुद्धि एकभक्त, रसत्याग, फलाहारी एकासन द्वारा होती हो, उन्हें तपोर्ह (तप के योग्य) द्रव्य प्रायश्चित्त कहा गया है।
जिन पापों की शुद्धि पुस्तक आदि खरीदकर साधुओं को देने पर हो, उसे दानार्ह (दान करने योग्य) बाह्य प्रायश्चित्त कहा जाता है। स्नान योग्य प्रायश्चित्त
चण्डालम्लेच्छभिल्लानां खराणां विड्भुजामपि। काकानां कुर्कुटानां च करभाणां शुनामपि।।22॥ मार्जाराणां व्याघ्रसिंहतरक्षुफणिनामपि। परनीचकारुकाणां मांसास्थ्नां चर्मणामपि।।23।। रक्तमेदोमज्जसां च पुरीषमूत्रयोरपि। शुक्रस्य दन्तकेशानामज्ञातानां च देहिनाम्।।24।। मृतपञ्चेन्द्रियाणां च तथोच्छिष्टान्न
(आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 258-259) चाण्डाल, म्लेच्छ, भील, नापित, भड़पूँजा, कौआ, मुर्गा, ऊँट, कुत्ता, बिल्ली, व्याघ्र, सिंह, सर्प, अन्य नीच जाति, कारु (शिल्पी), मांस, अस्थि, चर्म, रक्त, मेद, मज्जा, मल-मूत्र, शुक्र-दन्त, केश एवं अज्ञात व्यक्ति के देह, मृत पञ्चेन्द्रिय एवं उच्छिष्ट आहारभोजी (भिखारी) का स्पर्श होने पर उसकी शुद्धि स्नानमात्र से हो जाती है। मुनिजनों की शुद्धि तो जल के छिड़काव मात्र से हो जाती है। इस प्रकार उक्त प्राणियों और अशुचि द्रव्यों का स्पर्श होने पर उसकी शुद्धि स्नान से होती है।
करने योग्य प्रायश्चित्त
विरुद्धाचारजाघोषात्करणीयैर्विशुद्ध्यति। शूद्रात्प्रतिग्रहं कृत्वा ब्राह्मणे गोप्रदानतः।।27।। शुद्धिं भजेत्क्षत्रियस्तु शूद्रसेवी तथैव हिं। अशास्त्रं व्यवहारं च ज्योतिष कथयन्द्विजः।।28।। मासमात्रेण मौनेन शुद्धिं प्रामोति नान्यथा। अस्वाध्यायकरो विप्रो मौनी पक्षाद्विशुद्ध्यति।।29।। विप्रक्षत्रियवैश्यानां त्रुटिते कण्ठसूत्रके। पतिते वा प्रमादेन न वदेन्न क्रमं चरेत्।।30।। परिधायान्यसूत्रं तु चरेत्पादं वदेद्वचः त्रिरात्रं यवभोजी च जपेन्मन्त्रमघापहम्।।31।। दैन्यमर्थिनकारं च स्वस्तुर्ति परगहणम्। विधाय क्षत्रियः कुर्यात्रिरात्रं जिनपूजनम्।।32।। कृतोपवासः कनकं दत्त्वा तस्माद्विशुद्ध्यति। संग्रामाद्गोग्रहादन्ययुद्धस्थानादयुद्धकृत्।।33।। निवृत्तः क्षत्रियः शान्तं कृत्वा दानाद्विशुद्धयति। युद्धे हत्वारिसैन्यं तु स्नानादेव विशुद्धयति।।34।। इति