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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...221 • बिना प्रतिलेखन किए द्वार खोलें या संथारा बिछाएँ तो पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है।
• षट्पदी (घु आदि) को संस्पर्शित करने पर एकासन का प्रायश्चित्त आता है।
. समय पर प्रतिक्रमण न करें, गौचरी का प्रतिक्रमण न करें, नैषेधिक आदि दसविध सामाचारी का पालन न करें, तो एकासन का प्रायश्चित्त आता है। वीर्याचार में संभावित दोषों के प्रायश्चित्त
निवेशाच्च प्रमादौघादासने प्रतिलेखिते। तत्कार्ये यत्र सवधे प्रायश्चित्तमुदाहृतम्।।62।। अनापृच्छ्य स्थापने च गुरून्सर्वेषु वस्तुषु। अरसः स्यात्तपःशक्तिगोपनाच्च सुभोजनम्।।63।। मुक्तः सर्वासु मायासु दोत्पञ्चेन्द्रियादिषु। उद्वेजने च संक्लिष्टकर्मणां करणेऽपि च।।64।। दीर्घमेकत्र वासे च ग्लानवत्स्वाङ्गपालने। सर्वोपधस्तथा पूर्वपश्चाच्चाप्रतिलेखने।।65।। एतेषु सर्वदोषेषु चतुर्मासव्यतिक्रमे। वत्सरातिक्रमे चापि साधुभिाह्यमिष्यते।।66।। तथा च छेदरूपेपि प्रायश्चित्ते समाहितः। न गर्वे तद्विधानेन दध्याद्वाचंयमः क्वचित्।।67।। छेदादिकरणाच्छुद्धे प्रायश्चित्ते महामुनिः। कुर्वीत तपसा शुद्धिं जीवकल्पानुसारतः।।8।।
(आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 246) आचारदिनकर के उल्लेखानुसार- प्रमादवश अप्रतिलेखित घास के आसन पर बैठे, तो उसका वही प्रायश्चित्त आता है, जो एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा का बताया गया है।
• शक्ति का गोपन करने पर एकासन का प्रायश्चित्त आता है।
• अहंकार पूर्वक पंचेन्द्रिय आदि को पीड़ा दें, संक्लिष्ट कर्म करें, शरीर के पोषण हेतु लम्बे समय तक रूग्ण मुनि के साथ रहें तथा प्रथम एवं अन्तिम पौरुषी के समय सर्व उपधि की प्रतिलेखना नहीं करे-इन सब दोषों की शुद्धि चौमासी या संवत्सरी के दिन में भी नहीं करने पर-दस उपवास का प्रायश्चित्त आता है, किन्तु गर्व के कारण इसकी तरफ कोई ध्यान न दिया जाए तो उसको छेदरूप प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है।
लघु जीतकल्प के अनुसार
वीर्यातिचारप्रस्तावे तपःकर्म यथाविधि। पाक्षिकादौ विधेयं हि स्वशक्तया क्षुल्लकादिभिः।।123।। तेषाम करणे दोषः प्रायश्चित्तमिहोच्यते।