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________________ 222...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण पाक्षिके तपसि भ्रष्टे क्षुल्लकस्य तु निर्मदः।।124।। यतेर्यतिस्वभावश्च स्थविरस्य विलम्बकः। उपाध्ययस्य कामना आचार्यस्य गुरुः पुनः।।125।। चतुर्मासतपोभ्रंशे क्षुल्लकस्य विलम्बकः। प्राणाधारस्तु वृद्धस्य भिक्षोः सजलमिष्यते।।126।। उपध्यायस्य धर्मस्तु तथाचार्यस्य वै सुखम्। सांवत्सरतपोभ्रंशे क्षुल्लकस्य सुभोजनम्।।127।। स्थविरस्य द्विपादं तु भिक्षोरुत्तम ईरितः। उपाध्यायस्य भद्रं तु तथाचार्यस्य सुन्दरम्।।128।। (आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 253) लघुजीतकल्प के मतानुसार आचार्य वर्धमानसूरि कहते हैं कि वीर्यातिचार सम्बन्धी जो तप विधि पाक्षिक आदि में करने योग्य है उन्हें यथाशक्ति क्षुल्लक आदि के द्वारा किया जाना चाहिए। तदनुसार • पाक्षिक हेतु बताया गया तप न करने पर क्षुल्लक को नीवि, मुनि को एकासन, स्थविर को पुरिमड्ढ, उपाध्याय को आयंबिल एवं आचार्य को उपवास का प्रायश्चित्त आता है। • निर्दिष्ट चातुर्मासिक तप न करने पर क्षुल्लक को पुरिमड्ढ, वृद्धमुनि को एकासन, सामान्य मुनि को आयंबिल, उपाध्याय को उपवास एवं आचार्य को बेले का प्रायश्चित्त आता है। • वार्षिक तप न करने पर क्षुल्लक को एकासन, स्थविर को आयंबिल, सामान्य मुनि को उपवास, उपाध्याय को बेला एवं आचार्य को तेले का प्रायश्चित्त आता है। किंच सामान्य दोष • मुनि यदि लोच की पीड़ा से चलायमान हो जाए तो उपवास का प्रायश्चित्त आता है। • बाईस परीषहों को सहन न कर पाए, तो भी उपवास का प्रायश्चित्त आता है। • अध्यापन करवाते समय हाथ उठाया जाय तो उस दोष की शुद्धि प्रतिक्रमण से होती है। • मुमुक्षु यदि सद्गुरु की आज्ञा का विधि पूर्वक पालन न करे तो नीवि का प्रायश्चित्त आता है।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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