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208...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण इष्यते।।45।। दीर्घाध्वगमने चैव दीर्घकालरुजासु च। वर्षारम्भे वस्त्रशौचे त्रिष्वाचाम्लमुदाहृतम्।।46।। केचिदेष्वेव च प्राहुरादेयं शोधनं परम्। संवत्सरचतुर्मास्योरन्ते ग्राह्यमदूषणे।।47।। चतुर्मासावसाने च सर्वातीचारशोधने। प्राहुः पुण्यं केचिदन्ये ग्राह्यमाहुः सुसाधवः।।48।।
(आचारदिनकर भा. 2, पृ. 250-251) • पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु एवं प्रत्येक वनस्पतिकाय का संस्पर्श होने पर नीवि, इन जीवों को अल्प संतापित करने पर पुरिमड्ढ तथा इन्हें गाढ़ संतापित करने पर एकासन का प्रायश्चित्त आता है।
• सूक्ष्म अपकाय एवं तेजसकाय का स्पर्श होने पर भी पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है।
• बादर अपकाय एवं तेजसकाय का स्पर्श होने पर आयंबिल का प्रायश्चित्त आता है।
• जलचरों का संस्पर्श करने पर एकासन का प्रायश्चित्त आता है। • गीले वस्त्रों का संस्पर्श होने पर भी एकासन का प्रायश्चित्त आता है।
• ऊनी कम्बल से अप्काय एवं तेजस्काय का स्पर्शन करने पर नीवि का प्रायश्चित्त आता है।
• तेजस्काय का स्पर्श होने पर भी मन में शंकित होना कि स्पर्शन हुआ या नहीं, आयंबिल का प्रायश्चित्त आता है।
• यात्रा (पाद विहार) करते समय अंकुरित वनस्पति को कुचलने पर प्रत्येक कोश के हिसाब से उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
• हरी वनस्पति का संस्पर्श करने पर तथा अत्यधिक मात्रा में बीजों को कुचलने पर निरन्तर तीन उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
• पल्लवित कोपलों को जितने दिन तक कुचला जाए उतने दिन के उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
• मार्गस्थ नदी को पार करने पर उस दोष की शुद्धि के लिए उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
• अनंतकाय एवं विकलेन्द्रिय जीवों को अल्प परितापित करने पर एकासन तप का प्रायश्चित्त आता है। उन्हें अत्यधिक संतापित करने पर आयंबिल प्रायश्चित्त का विधान बतलाया है तथा उनका घात करने पर उपवास