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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...201 एवं श्राविका को आयंबिल का प्रायश्चित्त आता है।
लघुजीतकल्प के अनुसार
आशातनायां देवस्य गुरोः स्थाप्यगुरोरपि। शान्तेश्च स्थापनाचार्यनाशे शीतमुदाहृतम्।।10।। कालातिक्रम आदिष्टस्त(थै)स्यैवाप्रतिलेखने। अवतारणकादीनां करणे ग्राह्यमिष्यते।।11।। शङ्कादिपञ्चके कार्य देशादेव विलम्बकम्। तत्राचार्यस्य परमं पाठकस्य च धातुहृत्।।12।। आचार्यस्य पाठकस्य मुक्तं शीतं क्रमाक्कचित्। इत्येवं दर्शनाचारे प्रायश्चित्तमुदाहृतम्।।13।।
. (आचारदिनकर, पृ. 250) • देव, गुरु और स्थापनाचार्य की आशातना करने पर एकासना का प्रायश्चित्त आता है।
• स्थापनाचार्य का नाश करने पर पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है।
• सम्यक्त्व को दूषित करने वाले शंका आदि दोषों का अंशमात्र भी सेवन करने पर सामान्य मुनि को पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है किन्तु आचार्य को एकासना का तथा उपाध्याय को आयंबिल का प्रायश्चित्त आता है।
• कुछ गीतार्थों के मतानुसार आचार्य एवं उपाध्याय द्वारा इन दोषों का सेवन करने पर क्रमश: उपवास एवं एकासना का प्रायश्चित्त आता है। 3. चारित्राचार में संभावित दोषों के प्रायश्चित्त
अथ चारित्राचारप्रणिधानयोगादिलङ्घने प्रायश्चित्तं यथाएकेन्द्रियाणां संघट्टे तथा तत्परितापने। महासंतापने चैव तथोत्थापनमेव च।।11।। आद्ये विरसमाख्यातं द्वितीये च विलम्बकम्। प्राणाधारस्तृतीये च चतुर्थे सजलं भवेत्।।12।। विकालाख्यानन्तकायानां संघद्देऽल्पतापने। महासंतापने चैव तथोत्थापन एव च।।13।। प्रथमे पितृकालश्च द्वितीये विरसस्तथा। तृतीये चैककामघ्नश्चतुर्थे धर्म एव च।।14।। पञ्चेन्द्रियाणां संघट्टे तथेषत्परितापने। अत्यन्ततापने चैव स्थानादुत्थापने क्रमात्।।15।। यतिस्वभावः प्रथमे द्वितीये धातुकृत्पुनः। तृतीये पथ्य उद्दिष्टश्चतुर्थे भद्र एव च।।16।। मृषावादव्रते नूनमदत्तादान एव च। द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्भग्ने हीनाधिकोत्तमे।।17।। कार्य क्रमादेकभक्तं कामघ्नमुक्तमेव च। लिप्ते पात्रे स्थिते रात्रावनाहारः प्रकीर्तितः।।18।। पुण्यं चैव विधातव्यं निशायां शुष्कसंनिधौ। स्थिते निश्यशने कार्य सुन्दरं मुनिसत्तमैः।।1।।