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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...197 • नवकारसी, पौरुषी एवं गंठिसहियं प्रत्याख्यान का भंग होने पर कुछ जन एक सौ आठ नमस्कार मन्त्र का जाप करने के लिए भी कहते हैं। 9. वीर्याचार से सम्बन्धित दोषों के प्रायश्चित्त
तथा वीर्यातिचारेऽपि सामर्थ्य बहुले सति।।31।। देवार्चनं च स्वाध्यायं तपोदानातिविक्रियाः। कायोत्सर्गावश्यकादेस्तोकत्वकरणे सति।।32।। प्रत्येकं परमं प्राहुस्तपोज्ञानविभासनम्। मायया कुर्वतो धर्मो द्रव्यात्क्षेत्राच्च कालतः।।33।। भावतोऽभिग्रहं किंचित्सत्यां शक्तावगृह्णतः। तथा खण्डयतश्चापि पूर्वार्धं शुद्धिहेतवे।।34।।।
(आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 255) • अत्यधिक सामर्थ्य होने पर भी परमात्मा की पूजा, स्वाध्याय, तप, दान आदि उत्साहपूर्वक न किया हो, शक्ति होने पर भी आवश्यक क्रिया रूप कायोत्सर्ग आदि अल्पमात्रा में भी न किया हो, तो प्रत्येक दोष के लिए एकासन का प्रायश्चित्त आता है।
• कपट पूर्वक तप एवं ज्ञान की आराधना करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
. द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से शक्ति होने पर भी अति सामान्य अभिग्रह धारण करें, अभिग्रह आदि धारण ही न करें अथवा अभिग्रह लेकर उसे तोड़ दिया जाए तो पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है। श्रमण (सर्वविरतिधर)धर्म से सम्बन्धित प्रायश्चित्त
चारित्रधर्म को अंगीकार करने वाले साधु-साध्वी भी मोक्ष प्राप्ति की पूर्व अवस्था तक कर्मों से आबद्ध होते हैं अत: साधना की परिपक्वता एवं पूर्णता के अभ्यास काल में जाने-अनजाने तथा पूर्व संचित शुभाशुभ कर्मोदयवश किसी तरह की त्रुटि होना संभव है। जैन वांगमय में अकरणीय कृत्य को दोष या अपराध कहा गया है। उन दोषों से मुक्त होने के लिए प्रायश्चित्त किया जाता है।
__ आचारदिनकर के उल्लेखानुसार मुनि जीवन में शक्य दोषों के प्रायश्चित्त निम्न प्रकार हैं1. ज्ञानाचार में संभावित दोषों के प्रायश्चित्त ___ अथ ज्ञानातिचारेषु प्रायश्चित्तकरणं काल 1 विनय 2 बहुमानो 3 पधान 4 निह्नव 5 व्यञ्जनार्थं तदुभयातिक्रमादष्टविधोऽतिचारस्तत्र प्रायश्चित्तं यथा