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________________ 198...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण 'उद्देशेऽध्ययने चैव श्रुतस्कन्धे तथाङ्गके। अनागाढेषु चैत्येषु प्रायश्चित्तं क्रमाद्भवेत्।।1।। विरसः पितृकालश्च प्राणाधारो द्विपादकः। अगाढेषु तथैतेषु प्रायश्चित्तं क्रमाद्भवेत्।।2।। कालातिक्रमणं पाद आचाम्लं धर्म एव च। सूत्रार्थभने सामान्ये कामघ्नमुक्तमेव च।।3।। उद्देशवाचनायेषु प्राप्ताप्राप्तेषु कर्हिचित्। अविसर्जनतः काले मण्डल्या अप्रमार्जनात्।।4।। सर्वेषु निर्महोऽमीषु गुरुरक्षासनाशनात्। अनागाढे तथा गाढे भग्ने किंचिच्च सर्वथा।।5।। तत्तद्यागे सक्रिये च भग्ने किंचिच्च सर्वथा। क्रमात्पथ्यं तथा पुण्यं सजलं पथ्यमेव च।।6।। इति ज्ञानातिचारतपः।।। (आचारदिनकर भा. 2, पृ. 244) • काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय-इन आठ प्रकार के ज्ञानाचार में जो अतिक्रमण होता है उसे ज्ञानाचार सम्बन्धी अतिचार (दोष) कहते हैं। • अनागाढ़ सूत्रों के योग में विशेष कारण के होने पर उद्देशक में दोष लगे तो नीवि, अध्ययन के सम्बन्ध में दोष लगे तो पुरिमड्ढ, श्रुतस्कन्ध के विषय में दोष लगे तो एकासना और अंगसूत्र के सम्बन्ध में अतिचार लगे तो आयंबिल तप का प्रायश्चित्त आता है। • आगाढ़ सूत्रों के योगोद्वहन में विशेष कारण से उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कन्ध एवं अंगसूत्र के सम्बन्ध में अतिचार लगने पर इन दोषों की विशुद्धि के लिए क्रमश: पुरिमड्ढ, एकासना, आयंबिल एवं उपवास प्रायश्चित्त कहा गया है। • सामान्य रूप से सूत्र का भंग होने पर आयंबिल तथा अर्थ का भंग होने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। • आगम सम्बन्धित उद्देशक आदि वाचना में कदाचित योग्य एवं अयोग्य का विचार न किया हो, समय पर वाचना का विसर्जन न किया हो अथवा मण्डली स्थान का प्रमार्जन न किया हो तो इन सभी में नीवि का प्रायश्चित्त आता है। • अनागाढ़ योग का भंग किंचित भी होता है और सर्वथा भी होता है। इसी प्रकार आगाढ़योग का भंग किंचित भी होता है और सर्वथा भी। अनागाढ़ योग का किंचित और सर्वथा भंग होने पर दोनों ही परिस्थितियों में बेले का
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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