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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...185 • विशुद्ध कुल की विवाहिता स्त्री का भोग करने पर मूल प्रायश्चित्त आता है।
• पुरुष द्वारा पुरुष के साथ संभोग करने पर दस उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
. पूर्व में भोगे गए संभोग का चिन्तन करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है, किन्तु संभोग के प्रति सघन राग रखने पर अट्ठम का प्रायश्चित्त आता है।
• स्थूलपरिग्रहव्रत में किसी तरह का अतिचार लगने पर जघन्य से एकासन, मध्यम से आयंबिल एवं उत्कृष्ट से उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
व्यवहार जीतकल्प के अनुसार
जीवाम्बुशोषे ग्राह्यं स्यात्पीलिकामर्कटादिकान्। उपजिह्वादिकान्हत्वा बहून्प्रत्येकमाचरेत्।।4।। आदेयं स्तोकघाते तु स्तोकं तप उदाहृतम्। एकवारमपूताम्बुपाने भद्रं विशोधनम्।।45।। पात्रस्थिते पुनर्भक्तं स्थाने पानेऽप्यसंख्यके। सुन्दरं चापि भूयिष्ठं ग्राह्यं पाप विशुद्धये।।46।।
मृषावादे जघन्ये तु मध्यमे परमे क्रमात्। पूर्वार्ध सजलं ग्राह्यमुत्कृष्ट सर्वदेहिनाम्।।47।। प्रत्यक्षं निधिलाभादिदोषदाने गुरुस्ततः। विरसं लघु चाधाय शुध्यते श्रावकः परम्।।48।।
स्तेये जघन्ये पूर्वार्धं मध्यमे स्वगृहे कृते। अज्ञाते परमं कुर्याद्गृहे ज्ञाते गुरुं पुनः।।49।। अन्तिमं ज्ञात उत्कृष्टे ज्ञाते कलहकर्मणि। ग्राह्यं विधाय लक्षं च मन्त्रं शुद्धमना जपेत्।।50।। दर्पण सर्वचौर्येषु जघन्येष्वपि चान्तिमम्। तुर्यव्रते खदारेषु वेश्यासु नियमक्षयात्।।51।।
सुन्दरं परदारे च हीने ज्ञाते तथान्तिमम्। ज्ञाते लक्षं मन्त्रजापो ग्राह्ययुक्तो विधीयते।।52।। उत्तमे परदारे च ज्ञाने ग्राह्यसमन्वितः। लक्षं साशीतिसाहस्रं मन्त्रजापो विधीयते।।53।। ज्ञाते तत्रैव मूलं स्यादथ स्मरणतः पुनः। वेश्यासु पुण्यं भार्यायामुपवासो विशोधनम्।।54।। जानतः स्वकलोपि स्मरणादन्तिमं विदुः। आलापभेदतो नार्यां स्वस्त्रीभ्रान्तेस्तथान्तिमम्।।55।। ___ स्त्री चेद्वलं वितनुते तदा ग्राह्यं समादिशेत्। कियत्कालं गृहीतायां स्त्रियाँ भने सुखं वदेत्।।56।। उत्तमे तु कलत्रेपि भने मूले समागते। देयं प्रसिद्धपात्रस्य ग्राह्यं मूलं न कुत्रचित्।।57।।