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180...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण प्रव्रज्या सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त
तेणे कीवे रायावयारिदुढे य जुंगिए दोसे ।
सेहे गुव्विणि मूलं, सेसेसु हवंति चउगुरुगा ।।4।। संपयं साहूणं निव्विगइ-उववास-सज्झाया चेव आलोयणा तवे पडंति, पुरिमड्डो वा ण उण एगासणं। पुरिमड्डो वि चउव्विहाहारपरिहारेणेवि त्ति।
(विधिमार्गप्रपा, पृ. 89) जैनाचार्यों ने 18 प्रकार के पुरुष एवं 20 प्रकार की स्त्रियों को दीक्षा के अयोग्य माना है। उनके नाम इस प्रकार हैं-1. बाल, 2. वृद्ध, 3. नपुंसक, 4. कायर, 5. मूर्ख, 6. व्याधि ग्रसित, 7. चोरी करने वाला, 8. राजघाती, 9. उन्मत्त, 10. चक्षुहीन, 11. दास, 12. दुष्ट, 13. मूढ़, 14. ऋण पीड़ित, 15. भाग्यहीन या अंगहीन, 16. किसी दोष के अधीन हुआ, 17. डरपोक (भीरु), 18. शैक्ष निष्फीडित-माता-पिता द्वारा असम्मति प्राप्त।
स्त्रियों के सम्बन्ध में 18 भेद पूर्वोक्त ही जानने चाहिए। इसके अतिरिक्त 19. गर्भवती और 20. बालवत्सा- इन दोनों भेदों को मिलाने पर 20 प्रकार होते हैं।
. ऊपर वर्णित दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों में से स्तेन, नपुंसक, अधीर, राजा अपघाती, अंगोपांगहीन, पलायनवादी, गर्भवती स्त्री-इन्हें प्रव्रजित करने पर मूल प्रायश्चित्त आता है। शेष अयोग्य पुरुषों एवं स्त्रियों को प्रव्रजित करने पर चतुःगुरु का प्रायश्चित्त आता है।
• आचार्य जिनप्रभसूरि प्रायश्चित्त विधि के अन्तर्गत यह भी निर्देश करते हैं कि वर्तमान में साधु-साध्वियों को नीवि, आयंबिल, उपवास, पुरिमड्ढ एवं स्वाध्याय ही आलोचना तप में देते हैं, एकासना से कम प्रत्याख्यान वाला तप नहीं देते हैं। पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त भी चतुर्विध आहार के परित्याग पूर्वक ही देते हैं।
आचारदिनकर के अनुसार प्रायश्चित्त विधि आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर नामक यह ग्रन्थ संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में रचित है। इसकी रचना वि.सं. 1468 में की गई है। इस ग्रन्थ प्रशस्ति से अवगत होता है कि रचनाकार खरतरगच्छ की रूद्रपल्ली शाखा के अभयदेवसूरि (तृतीय) के शिष्य हैं। यह ग्रन्थ चालीस उदयों से विभाजित है।