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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...181 आचार्य वर्धमानसूरि ने इन चालीस उदयों को तीन भागों में वर्गीकृत किया है। प्रथम विभाग में गृहस्थ सम्बन्धी षोडश संस्कारों का विवेचन है, दूसरे विभाग में मुनि जीवन से सम्बन्धित सोलह संस्कारों का निरूपण है तथा अन्तिम तृतीय विभाग में गृहस्थ और मुनि दोनों द्वारा सामान्य रूप से आचरणीय आठ विधि विधानों का उल्लेख है। इसी तीसरे विभाग में पांचवाँ उदय स्वतन्त्रत: प्रायश्चित्त विधि से सन्दर्भित है।
आचार्य वर्धमानसूरि ने 36वें उदय में प्रायश्चित्त विधि का वर्णन श्रावकजीतकल्प, यतिजीतकल्प, लघुजीतकल्प, व्यवहारजीतकल्प के आधार पर किया है। साथ ही प्रकीर्ण प्रायश्चित्त, भाव प्रायश्चित्त एवं द्रव्य प्रायश्चित्त का उल्लेख भी किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इसमें गृहस्थ और मुनि से सम्बन्धित दोषों के प्रायश्चित्त पृथक्-पृथक् एवं युगपद् दोनों प्रकार से कहे गये हैं। हम यथाशक्य दोनों विभाग के अनुसार इसकी चर्चा करेंगे।
गृहस्थ (देशविरति श्रावक) सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधि 1. सम्यक्त्वव्रत सम्बन्धित दोषों के प्रायश्चित्त
अथ संश्रावकाणां तु कथ्यते तपसैव हि।।1।। यथा-'शङ्कां काङ्क्षां विचिकित्सां मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम्। तत्संस्तवं मनाक्कृत्वा शीतं बाढं गुरुः पुनः।।2।। अवन्दने जिनानां च पूजापत्रादिताडने। प्रतिमायाश्च पतने मार्जने विधिवर्जिते।।3।। एतेषु प्रायश्चित्तं तु क्रमादग्रत उच्यते। पञ्चविंशतिमत्रैश्च पञ्चभिः पञ्चभिस्तथा।।4।। यतिस्वभावेन पुनश्चतुर्थ्यः शुद्धिरिष्यते। पार्श्वस्थादिमुनीनां च गुरुबुद्ध्यानुदानतः।।5।। पञ्चविंशतिसंख्येन मंत्रजापेन शुद्ध्यति। पट्टिकापुस्तकादीनां ज्ञानोपकरणस्य च।।6।। पातनात्पादसंघट्टात्पञ्चमंत्रजपाच्छुभम्। प्रत्याख्याने मन्त्रयुते ग्रन्थिमुष्टियुते तथा।।7।। भग्ने त्रिशतसंख्येन मन्त्रजापेन शुद्धयति। एतेषां ज्ञातशङ्केषु त्रिगुणो जाप इष्यते।8।। अदाने त्यक्तविकृतेः प्रायश्चित्तं च पूर्ववत्। केचिच्छंकादिके प्राहुः पञ्चरूपेऽतिचारके।।७।।
(आचारदिनकर भा.-2, पृ. 248) • श्रावकजीतकल्प के अनुसार आचार्य वर्धमानसूरि के अभिमत से जिनेश्वर परमात्मा के वचनों में शंका होने पर, अन्य धर्म की इच्छा रखने पर, धर्म कार्यों के फल में सन्देह करने पर, मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करने पर तथा