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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...169 नीवि का प्रायश्चित्त आता है।
मुनिवेश सम्बन्धी- शिष्य के द्वारपाल का कार्य किए जाने पर पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है।
• जैसे गरुड़ पक्षी के दोनों कन्धे पंख से ढ़के रहते हैं वैसे ही मुनि द्वारा स्वयं के कन्धों को वस्त्रांचल से ढकने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
• अन्य परम्परा के मुण्डित साधु एवं क्षुल्लक साधु के समान उत्तरीय वस्त्र को धारण करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
• चोलपट्ट को लंगोटी के रूप में धारण करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
• अन्य परम्परा के साधुओं की भाँति चार गुणा लपेटे हुए अथवा खुले हुए वस्त्र को कन्धे पर रखने से पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है। ___ • मुनि के द्वारा अपनी दोनों भुजाओं को वस्त्र से आच्छादित करने पर आयंबिल का प्रायश्चित्त आता है।
• गृहस्थलिंग एवं अन्यतीर्थिक लिंग के समान वस्त्र धारण करने पर मूल प्रायश्चित्त आता है।
• चोलपट्ट के परिमाण से न्यून परिमाण वाला अधोवस्त्र धारण करने पर चारपुट वाला वस्त्र धारण करने पर पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है।
• श्री संघ के बीच रहते हुए उत्तरीय वस्त्र धारण नहीं करने पर, अचित्त लहसुन का भक्षण करने पर तथा गाय के बछड़े आदि को संताप देने पर पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है।
सामान्य आचार सम्बन्धी- गंठसी प्रत्याख्यान का भंग होने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। - • सामर्थ्य होने पर भी अष्टमी-चतुर्दशी-ज्ञानपंचमी आदि तिथियों में चतुर्थभक्त न करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है।
• प्रत्येक कल्प में वस्त्र धोने पर नीवि का प्रायश्चित्त आता है। यहाँ 'प्रत्येक कल्प' शब्द का अभिप्राय स्पष्ट नहीं है, यद्यपि विहार की अपेक्षा साधु के नौ कल्प एवं साध्वी के पाँच कल्प माने गये हैं। __ • प्रमाद से संकलित प्रत्याख्यान को ग्रहण न करने पर पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है।