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________________ 158...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण 5. अकारण-बिना किसी प्रयोजन के आहार करने पर भी चतुःलघु का प्रायश्चित्त आता है।।67।। उपरोक्त प्रायश्चित्त विधि जीतव्यवहार के अनुसार कही गई है। आलोचना देते समय आलोचना दाता गुरु आलोचक की असमाधि अथवा उसके विशुद्ध भावों को ज्ञातकर उसकी योग्यतानुसार न्यूनाधिक अथवा तत्सम्मत प्रायश्चित्त देते हैं। पिण्ड दोष से सम्बन्धित यह प्रायश्चित्त विधि आचार्य जिनप्रभसूरि ने स्वयं की आत्मस्मृति के लिए जीतकल्प से उद्धृत कर उल्लिखित की है तथा इस प्रायश्चित्त विधान को सामान्य हेतु से कहा है। यदि किसी को द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव की अपेक्षा प्रधान हेतु युक्त प्रायश्चित्त जानना हो तो उसके लिए निशीथ, बृहत्कल्प, जीतकल्प आदि छेद ग्रन्थों का परावर्तन एवं अवलोकन करना चाहिए। चारित्राचार सम्बन्धी अन्य दोषों के प्रायश्चित्त सेज्जायरपिण्डे आं.। मयंतरे पु.। पमाएण कालद्धाणातीए कए नि., पमायओ तब्भोगे नि., अन्नहा उ.। उवओगस्स अकरणे अविहिणा वा करणे पु., अहवा नि., अहवा सज्झाय 125। उवओगमकाऊण सभत्तपाणविहरणे आं.। गोयरचरियअपडिक्कमणे पु.। काइयभूमीअप्पमज्जणे य नि.। सुत्तपोरिसिं अत्थपोरिसिं वा न करेइ पु., तदुभयं न करेइ उ.। हरियकायं पमद्दइ पु.। झुसिरतणं सेवए पु.। निक्कारणदुप्पडिलेहियदूसपंचगं, अझुसिरतणपंचगं चम्मपंचगं पुत्थयपंचगं अपडिलेहियदूसपंचगं च सेवए कमेण नि.नि.नि.आं.ए.। गमणियापरिभोगे अचक्खुविसए वा दिणसंघाए पु.। मुत्तोच्चारअसणाइपरिट्ठप्पं अविहिणा परिट्ठवइ, गिहिपच्चक्खं अगुत्तं भासइ भंजइ य, पडिमानियडे खेलमल्लगं धारेइ, गिलाणं न पडिजागरइ, अकाले सागारियहत्येणं वा अंगं मद्दावेइ मक्खाएइ वा, उस्संघट्टसंस्थारए चडइ, नम्मगाइ झुसिरं परिभुंजइ, दारदेसे पवेस-निग्गमभूमिं न पमज्जइ, सज्झायमकाऊण भुंजइ, अवेलाए उच्चारभूमिं गच्छइ, सागारियस्स पिच्छंतस्स काइयसन्नाइ वोसिरइ-सव्वत्थ पु.। अपारिए भत्तं भुंजइ दवं वा पिबइ पु., अथवा सज्झाय 125। ठवणकुलेसु अणापुच्छाए पविसइ ए.। इत्थि-रायकहासु उ., देसभत्तकहासु आं.। कोह-माण-मायाकरणे आं., लोभकरणे उ.। अणणुनाए संथारए आरोहइ आं.। मयंतरे पु.।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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