________________
जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...157 9. लिप्त-दही आदि विगयों से लिप्त हाथ द्वारा भिक्षादि ग्रहण करने पर मुनि को चतुःलघु का प्रायश्चित्त आता है।।62।।
10. छर्दित-दसवाँ छर्दित नामक दोष पृथ्वीकायादि की अपेक्षा अनन्तर और परम्परा से दो प्रकार का है।
• सचित्त पृथ्वीकायादि से सम्बन्धित आहार ग्रहण करने पर अनन्तर से चतुःलघु तथा परम्परा से ग्रहण करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त आता है।
• मिश्र पृथ्वीकायादि से सम्बन्धित आहार ग्रहण करने पर अनन्तर से मासलघु तथा परम्परा से ग्रहण करने पर पणग का प्रायश्चित्त आता है।
• मिश्र प्रत्येक वनस्पति और अनन्त वनस्पति से सम्बन्धित आहार ग्रहण करने पर साक्षात् या परम्परा से पणग का प्रायश्चित्त आता है। . . सचित्त अनन्तकाय से सम्बन्धित आहार ग्रहण करने पर अनन्तर से चतुःगुरु तथा परम्परा से लगने पर मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है।
• मिश्र अनन्तकाय से सम्बन्धित आहार ग्रहण करने पर अनन्तर से मासगुरु तथा परम्परा से पणग आदि का प्रायश्चित्त आता है।।62-65।। पाँच माण्डली (ग्रासैषणा) सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त
संजोयणाइ चउगुरु, अइप्पमाणंमि चउलहुयं ।।66।। इंगाले चउगुरुया, चउलहु धूमे अकारणाहारे। घासेसणदोसाणं, इय पायच्छित्तमक्खायं।।67।।
(विधिमार्गप्रपा, पृ. 86)
(जीतकल्याण भाष्य, 1620-1645) 1. संयोजना-भोजन को स्वादिष्ट या रुचिकर बनाने के लिए तद्योग्य द्रव्यों के संयोजन से युक्त आहार करने पर चतुःगुरु का प्रायश्चित्त आता है।।66।।
2. अप्रमाण-परिमाण से अधिक आहार ग्रहण करने पर चतुःलघु का प्रायश्चित्त आता है।।66।।
3. अंगार-दाता अथवा खाद्य सामग्री की प्रशंसा करते हुए आहार करने पर चतुःगुरु (उपवास) का प्रायश्चित्त आता है।।67।।
4. धूम-दाता अथवा आहार की निन्दा करते हुए उसे ग्रहण करने पर चतुःलघु का प्रायश्चित्त आता है।