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104... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
भगवतीसूत्र में दसविध प्रायश्चित्त आदि का सामान्य वर्णन है। 3 ज्ञाताधर्मकथा', अंतकृत्दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र' आदि में 'णहाए कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल पायच्छित्ते' अर्थात स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित्त कर. ..' इस रूप में प्रायश्चित्त शब्द का उल्लेख है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में अशुभसूचक उत्पात, प्रकृति विकार, दुःस्वप्न, अपशकुन, क्रूर ग्रहों के प्रकोप, अमंगल सूचक अंगस्फुरण आदि के फल को नष्ट करने हेतु प्रायश्चित्त का उपदेश दिया गया है।
इस प्रकार ग्यारह अंग आगमों में उभयात्मक साधना का सामान्य वर्णन ही प्राप्त होता है। बारह उपांग सूत्रों में यह चर्चा स्पष्टत: नहींवत है ।
जहाँ तक आगमिक संख्याओं में छेद सूत्रों का सवाल है वहाँ निश्चित्त रूप से यह कहा जा सकता है कि व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ, महानिशीथ, जीतकल्प, पंचकल्प—ये छहों छेद आगम मुख्यतः प्रायश्चित्त अधिकार से ही सम्बन्धित हैं। इनमें प्रमुख रूप से यही विषय वर्णित किया गया है। निशीथसूत्र तो पूर्णतः प्रायश्चित्त ग्रन्थ ही है। इसमें सम्भावित हर तरह के दोषों का प्रायश्चित्त बतलाया गया है।
इस तरह आगम परम्परा में छेदसूत्र उभयात्मक साधना का समुचित प्रतिपादन करते हैं।
इसके अनन्तर दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि में भिक्षा आलोचना, स्थण्डिल आलोचना, आलोचना के लाभ, प्रायश्चित्त का महत्त्व आदि कुछ तथ्यभूत बिन्दुओं को उजागर किया गया है। इस भाँति आगमों में प्रायश्चित्त का वर्णन काल क्रम के अनुसार विस्तार से प्राप्त होता है ।
जहाँ तक आगमिक टीकाओं का प्रश्न है वहाँ व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र, निशीथसूत्र की टीकाओं आदि में आलोचक कौन, आलोचना के गुण, आलोचना न करने के दोष, प्रायश्चित्त योग्य स्थान, प्रायश्चित्त के अधिकारी कौन ? ऐसे अनेक विषयों का शास्त्रीय विधि से प्रतिपादन किया गया है। इनके अतिरिक्त ओघनिर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि, आवश्यकटीका, उत्तराध्ययनटीका आदि में भी इस विषयक पर्याप्त विवेचन उपलब्ध है।
इस वर्णन के आधार पर सुस्पष्ट होता है कि आगमिक टीकाओं के रचनाकाल तक आलोचना एवं प्रायश्चित्त का अपेक्षित स्वरूप जन सामान्य के