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अध्याय-5
आलोचना एवं प्रायश्चित्त विधि का ऐतिहासिक अनुशीलन
जैन संस्कृति आचार एवं विचार प्रधान है। यहाँ शुभाशुभ आचरण को जितना महत्त्व दिया गया है उतना सद्-असद् विचारों के प्रति भी आकृष्ट किया गया है। व्यक्ति असत्य आचरण से ही अशुभ कर्म नहीं बाँधता, अपितु असत चिन्तन द्वारा भी घने कर्मों का बंध करता है। मनोविज्ञान के तहत देखा जाए तो विचारों के अनुरूप कर्म होते हैं। यदि वैचारिक पक्ष सम्यक् है तो क्रियात्मक पक्ष कभी गलत नहीं हो सकता । अतः वैचारिक धरातल सही होना आवश्यक है।
आलोचना वैचारिक जगत को ऊँचा उठाती है और प्रायश्चित्त आचार पक्ष को निर्मल करता है। इस तरह आलोचना एवं प्रायश्चित्त मानव मात्र के विकासीय जीवन के अभिन्न अंग हैं।
यह निर्विवाद है कि इन उभयात्मक साधना का उपदेश अरिहंत परमात्मा ने दिया है, किन्तु यह वर्णन कहाँ - किस रूप में उपलब्ध है ? इस सम्बन्ध में विचार करते हैं तो जहाँ तक आप्त प्रणीत आगमों का प्रश्न है वहाँ कुछ आगमों में अति सामान्य तो कहीं भेद प्रभेद आदि की चर्चा प्राप्त होती है। यदि गहराई से अवलोकन करें तो साधना का यह पक्ष प्रायः आगमों में पाया गया है। स्पष्ट रूप से स्थानांगसूत्र में आलोचना सम्बन्धी कई विषयों पर प्रकाश डाला गया है। तदनुसार उसमें मायावी व्यक्ति तीन कारणों से आलोचना करता है और तीन कारणों से आलोचना नहीं करता है । इसी प्रकार प्रस्तुत आगम में प्रायश्चित्त के छह, आठ एवं दस प्रकार, आलोचना दाता की आठ एवं दस योग्यताएँ, आलोचक की योग्यताएँ, आलोचना काल में संभावित दस दोष आदि का भी विवरण है। 1
समवायांगसूत्र में बत्तीस योग संग्रह के अन्तर्गत पहला योग आलोचना को बतलाया है।2