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आलोचना एवं प्रायश्चित्त विधि का ऐतिहासिक अनुशीलन...105 सामने उपस्थित हो चुका था। यद्यपि छेद सूत्रों को पढ़ने-पढ़ाने का अधिकार आचार्य, गीतार्थ या सुविहित सामाचारी पालक मुनियों को ही है। तथापि स्मृति हास के काल में टीका साहित्य का लिखा जाना एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। वर्तमान में मूलागमों के समानान्तर ही आगमिक टीकाओं को प्राथमिकता दी गई है। ___जहाँ तक आगमेतर साहित्य का प्रश्न है वहाँ उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र में केवल प्रायश्चित्त के प्रकारों का ही नाम निर्देश है। किन्तु आचार्य हरिभद्रसूरि के पंचाशकप्रकरण एवं विंशतिविंशिका में इस विषय के पृथक्-पृथक् प्रकरण भी प्राप्त होते हैं। जिनमें आलोचना और प्रायश्चित्त सन्दर्भित आवश्यक विषयों पर सम्यक् विवेचन है। कुछ तत्त्वों की परिपुष्टि हेतु मतान्तरों का उल्लेख भी किया गया है। ___ तदनन्तर 12वीं शती के परवर्तीकाल में धर्मघोषसूरिकृत यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, आचार्य जिनप्रभसूरिकृत विधिमार्गप्रपा, वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर आदि में जीतव्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त विधियाँ कही गई है। वर्तमान में तीर्थंकर, चौदहपूर्वी, आगमधर आदि के अभाव में पाँच व्यवहारों में से प्रारम्भ के चार व्यवहार लुप्त हो चुके हैं, केवल जीतव्यवहार ही प्रवर्तित है। इस दृष्टि से उक्त ग्रन्थों का अमूल्य स्थान है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर आदि अपनी-अपनी सामाचारी से प्रतिबद्ध ग्रन्थ हैं अत: इनमें परम्परा प्रचलित प्रायश्चित्त विधि दर्शायी गयी है। फिर भी ये ग्रन्थ समग्र परम्पराओं के लिए उपयोगी एवं अनुसरणीय हैं, क्योंकि इन आचार्यों ने यह विवरण स्वतन्त्र रूप से न लिखकर पूर्वरचित लघुजीतकल्प, जीतकल्प, यतिजीतकल्प, आलोचनाकल्प आदि के आधार पर प्रस्तुत किया है। पूर्व ग्रन्थों के अनुसार उनकी सामाचारी में किसे कौनसा जीत प्रायश्चित्त दिया जा सकता है वही उपदर्शित किया है। इन्हें गीतार्थ आचार्य के रूप में भी माना जा सकता है और इस बात की पुष्टि उनके जीवन चरित्र से स्पष्ट हो जाती है। तो आशय यह है कि विधिमार्गप्रपा आदि रचनाएँ प्रायश्चित्त दान के सम्बन्ध में सर्वोत्तम स्थान रखती हैं, इसीलिए इन ग्रन्थों के आधार पर प्रायश्चित्त विधि कहेंगे।
इसके अनन्तर क्षमाकल्याण उपाध्याय विरचित आलोचना विधि,--