SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 98...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण कुसंस्कारों के निर्मूलन का श्रेष्ठ उपाय आलोचना है। आलोचना आदि रूप मोक्षमार्ग की साधना मनुष्य भव में ही शक्य है इसलिए शास्त्रकारों ने मनुष्य भव को दुर्लभ कहा है। यदि सम्यक् आलोचना की जाये तो अनेकशः प्रकार के पाप, अपना दुष्फल दिये बिना ही निर्जरित हो जाते हैं। हम जिस पाप की जुगुप्सा करें, वह तो नष्ट होता ही है परन्तु एक पाप के प्रति की गई जुगुप्सा यदि पराकाष्ठा पर पहुँच जाये तो अनेक भवों के पापकर्म को नष्ट करते हुए आत्मिक सुख प्रदान कर सकती है। अतिमुक्त मुनि को स्मृति पटल पर लाया जाए तो पूर्वोक्त कथन का स्पष्टीकरण तुरन्त हो सकता है कि उन्होंने खेल-खेल में छोटी सी भूल की तीव्र पश्चात्ताप पूर्वक आलोचना की। परिणामस्वरूप अनादिबद्ध पापों से शीघ्र मुक्त हो उसी समय केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। जैसे अतिमुक्त मुनि सामान्य पाप का प्रायश्चित्त करते-करते भव-भवान्तर के दुःख से मुक्त हो गये उसी तरह स्त्रीहत्या, गर्भहत्या, गौहत्या, ब्रह्महत्या जैसे अत्यन्त घृणास्पद पाप कार्य करने वाले दृढ़प्रहरी ने इन सर्व पापों की गुरु समक्ष आलोचना की। उसके पश्चात प्रायश्चित्त रूप में संयमी जीवन स्वीकार कर कठोर अभिग्रह लिया कि जब कभी मुझे स्वकृत पाप याद आयेंगे उस दिन आहार-पानी ग्रहण नहीं करूँगा। इस तरह चारित्र का उत्कृष्ट पालन करते हुए केवलज्ञान पाकर मोक्ष चले गये।। जैसे दृढ़प्रहरी का जीव अनेक हत्याएँ करने के उपरान्त भी शुद्ध आलोचना करने से मोक्ष गया वैसे ही अर्जुनमाली के जीव ने भी उस भव में छह महीनों तक प्रतिदिन छह पुरुष और एक स्त्री ऐसे कुल सात-सात मनुष्य की हत्याएँ की थी। परन्तु भगवान महावीर की वाणी सुन कर संयम जीवन स्वीकार किया तथा शुभ परिणाम से सर्व पापों की आलोचना पूर्वक अनेक उपसर्गादि सहन किये। तत्फलरूप उसी भव में अनन्तसुख के भोक्ता बन गये। जिस प्रकार कई हत्यारे आलोचना द्वारा पाप से मुक्त हुए उसी प्रकार राग आदि के अधीन हुई आत्माएँ भी आलोचना करके उसी भव में मोक्ष गईं। ___ पुष्पचूल और पुष्पचूला दोनों भाई-बहिन ने परस्पर विवाह किया तथा रागाधीन होकर अनैतिक-वैषयिक पापकृत्य किये। एकदा पुष्पचूला वैराग्य वासित हो गुरु समक्ष कृत पापों के आलोचना की अनुमति चाही। गुरु ने शास्त्र
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy