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________________ आलोचना क्या, क्यों और कब?...97 मान, माया और लोभ से बांधा हआ कर्म नम्रता-सरलता और संतोष आदि भाव के बिना नष्ट नहीं हो सकता। तीव्र राग से सर्जित कर्म उन-उन वस्तुओं के प्रति तीव्र वैराग्य रखने पर ही नष्ट होता है। ___ आशय है कि जिस भाव से पाप कर्म किया हो, उससे विरुद्ध भावों को उत्पन्न कर प्रायश्चित्त वहन किया जाये तो इस भव में किये गये पाप तो विनष्ट होते ही हैं परन्तु पाप विरुद्ध उत्पन्न हुआ तीव्र भाव भव-भवान्तर की पापधारा को भी नष्ट कर सकता है। यहाँ प्रश्न होता है कि पाप विरुद्ध परिणाम से ही पापकर्म का नाश हो जाता है तब वैसा परिणाम ही करना चाहिए, फिर तप-जप या स्वाध्याय की आवश्यकता क्यों? यह कहना सही है कि तप-जप या स्वाध्याय की अपेक्षा पाप विरुद्ध भावों को ही उत्पन्न करने का पुरुषार्थ करना चाहिए, परन्तु परिस्थिति यह है कि प्रायः शुभाशुभ भाव निमित्त से ही प्रगट होते हैं। पाप विरुद्ध शुभभावों का प्रबल कारण स्वाध्याय है। यदि चिंतन-मनन और उपयोग पूर्वक शास्त्र का स्वाध्याय किया जाये तो शास्त्र के एक-एक पद में मोह रूपी जहर को उतारने की शक्ति है। एक आत्मार्थी मुनि ने चिलातीपुत्र को तीन शब्द मात्र दिये- उपशम, विवेक और संवर। चिलाती ने इन तीन पदों का यथार्थ स्वाध्याय किया, तत्फलस्वरूप उसने सद्गति प्राप्त की। माषतुष मुनि को गुरु ने दो शब्द ही दिये 'मा तुष' 'मा रुष'- इन दो शब्दों का मर्म पूर्वक स्वाध्याय करने से उसने सर्व कर्मों को क्षीणकर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। जैसे स्वाध्याय क्षमा आदि शुभ भाव का कारण है वैसे ही अनशन आदि तप इन्द्रियनिग्रह का कारण है। इन्द्रिय और मन के अनियन्त्रण से बंधे हुए कर्म तप रूप प्रायश्चित्त से ही नष्ट होते हैं। उत्तम पुरुषों के नाम स्मरण का जाप महापुरुषों के गुणों के प्रति बहुमान का भाव प्रगट करता है। उससे रुचिपूर्वक किये गये पापों को नष्ट कर सकते हैं। आलोचना करने के फायदे और न करने के नुकसान शास्त्रीय उदाहरणों के सन्दर्भ में मोक्ष साधना का अर्थ है- आत्मसत्ता पर अनादिकाल से आवृत्त कुसंस्कारों को दूर करना।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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