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96...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
मूक - मूक स्वर से 'गुणमुण' करते हुए आलोचना करना।
ढङ्कर - उच्च स्वर से आलोचना करना।61 आलोचना के पश्चात प्रायश्चित्त वहन कैसे करें?
अपने दोषों को गुरु के समक्ष निवेदित करने मात्र से पाप शुद्धि नहीं हो जाती, आलोचक के भावों का निरीक्षण कर गुरु योग्य प्रायश्चित्त देते हैं तथा पाप विमुक्ति के लिए निश्चित संख्या में तप-जप-स्वाध्याय आदि का निर्देश करते हैं उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है। जिसके द्वारा प्राय: चित्तशुद्धि होती है उसका नाम प्रायश्चित्त है।
प्रायश्चित्त, चित्तशुद्धि का कारण अवश्य है किन्तु किस विधियुक्त किया गया प्रायश्चित्त चित्तशुद्धि का हेतु बनता है यह विचारणीय है।
शरीर में रोग होता है तब सबसे पहले उसके कारणों का शोधन करते हैं। कारण पकड़ में आने के बाद ही उससे विरुद्ध कारणों का आसेवन प्रारम्भ करते हैं जिससे रोग धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार प्रायश्चित्तकर्ता को सर्वप्रथम यह विचार कर लेना चाहिए कि किन कारणों से पाप हुआ? किन निमित्तों के अधीन होकर पाप कर्म किये? कितने कषायों से युक्त पाप सेवन किया? कषायों की मात्रा कितनी थी? इत्यादि।
जैसे समुद्र सैर करने का मन हुआ, लोन ऊपर खेलने-कूदने की इच्छा हुई अथवा अभक्ष्य पदार्थों का सेवन किया, यह सभी पाप के मूल कारण हैं। यदि पाप से बचना हो, तो गुरु प्रदत्त तप-जप या स्वाध्याय करते समय भी तथागत प्रणिधान करना चाहिए कि इस तपस्या आदि से मेरी आत्मा के ऊपर ऐसा परिणाम पैदा हो, जिसके प्रभाव से मुझे प्रत्येक जीवों के प्रति प्रेमभाव, करुणाभाव हो। __कुछ जन गुरु प्रदत्त प्रायश्चित्त वहन भी करते हैं, किंतु वह सम्मूर्छिम जैसा ही होता है। गुरु ने कहा है इसलिए कर लेना चाहिए, ऐसा सोचकर कर लेते हैं, परन्तु आलोचना करते समय जिस भाव से पाप किया है उससे विरुद्ध भाव उत्पन्न करने के लिए प्रयत्न करने का भाव बहुत कम देखा जाता है।
ठंडी हवा आदि से हुई सर्दी जैसे गरम वातावरण के बिना मिट नहीं सकती वैसे ही क्रोध पूर्वक बांधा गया कर्म क्षमा भाव के बिना नष्ट नहीं हो सकता। पाप करते वक्त क्रोध की मात्रा जितनी तीव्र होती है उतनी या उससे अधिक क्षमाभाव से ही क्रोध सर्जित बंध का नाश होता है।