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आलोचना क्या, क्यों और कब?...95 5. सूक्ष्म दोष- (i) केवल छोटे दोषों की आलोचना करना सूक्ष्म दोष है। (ii) स्थूल दोष कहने से प्रायश्चित्त मिलेगा, अत: अधिक प्रायश्चित्त के भय से छोटे-छोटे दोषों का प्रकाशन करना। ____6. छन्न दोष- मंद शब्दों में आलोचना करना, जिससे आचार्य स्पष्ट रूप में सुन न सकें वह छन्न दोष है।
7. शब्दाकुल दोष- (i) जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिसे अगीतार्थ मुनि भी सुन सके, वह शब्दाकुल दोष है। (ii) पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के समय कोलाहलपूर्ण वातावरण में दोषों को प्रकट करना। ____ 8. बहुजन दोष- (i) एक आचार्य के समीप आलोचना कर शंकाशील मन से उसी दोष की दूसरे गीतार्थ के पास आलोचना करना, बहुजन दोष है। (ii) बहुत आचार्यों या सामान्य लोगों के एकत्रित होने पर आलोचना करना।
9. अव्यक्त दोष- (i) अगीतार्थ के सान्निध्य में आलोचना करना अव्यक्त दोष है। (ii) अव्यक्त रूप से दोषों को स्वीकार करना, अव्यक्त दोष है। ___10. तत्सेवी दोष- (i) आलोचनार्ह स्वयं जिन दोषों का सेवन कर चुके हैं या करते हैं उनके समीप उन दोषों का ही प्रकटीकरण करना ताकि अल्प प्रायश्चित्त मिले अथवा मेरा दोष इसके समान है इसे जो प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है, वही मेरे लिए भी उपयुक्त है, ऐसा सोचकर अपने दोषों का संवरण करना, तत्सेवी दोष है। (ii) आलोचना दाता गुरु जो स्वयं अपने समान ही दोषों से युक्त हैं उनके समक्ष आलोचना करना, जिससे वह बड़ा प्रायश्चित्त न दें। .. ___ उपर्युक्त दोषों के प्रस्तुतीकरण का आशय है कि आलोचक इन दोषों से बचते हुए आलोचना करे। इससे युक्त होने पर कृत आलोचना आधी-अधूरी और पुनर्बन्ध का हेतु बनती है। __ओघनियुक्ति के अनुसार आलोचना काल में सम्भाव्य निम्न दोषों का भी वर्जन करना चाहिए।
नृत्य - अंगों को नचाते हुए आलोचना करना। बल - शरीर को मोड़ते हुए आलोचना करना। चल - अंगों को चालित करते हुए आलोचना करना। भाषा - गृहस्थ की भाषा में या असंयत रूप से आलोचना करना।