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________________ 92...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण आलोचना काल में स्वयं के दोषों की निन्दा होती है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार स्वनिन्दा से जीव पश्चात्ताप को प्राप्त होता है। उसके द्वारा विरक्त होता हुआ साधक मोहनीय कर्म को क्षीण कर देता है।54 आलोचना गुरु साक्षी पूर्वक होती है। जैन परिभाषा में गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना गर्दा कहलाता है। प्रतिक्रमण या आलोचना के पाठ में 'पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि' इतना पद एक साथ आता है। इसका आशय यह है कि निन्दा और गर्दा आलोचना के ही मुख्य अंग हैं, इन अंगों से आलोचना सम्यक् एवं परिपूर्ण बनती है। विशेष रूप से स्वदोषों के बारे में चिन्तन करना निन्दा है तथा अतिचारों को गुरु के समक्ष प्रकट करना गर्दा है। ... आलोचना के तात्त्विक फल निरूपण में भगवान महावीर की अंतिम वाणी कहती है- गर्दा से जीव अनादर को प्राप्त होता है। अनादर प्राप्त जीव अप्रशस्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होता है और प्रशस्त प्रवृत्तियों को अंगीकार करता है। साथ ही ज्ञानावरणादि कर्मों की परिणतियों को क्षीण करता है।55 ओघनियुक्तिकार ने आलोचना का मनोवैज्ञानिक फल निर्देशित करते हुए कहा है उद्धरिय सव्वसल्लो, आलोइय निंदिओ गुरुसगासे । होइ अतिरेग लहुओ, ओहरिय भरोव्व भारवहो ।।806।। जैसे भारवाहक भार को नीचे उतारकर हल्केपन का अनुभव करता है वैसे ही गुरु के समक्ष आलोचना और निन्दा कर लेने पर साधक अत्यधिक हल्केपन का अनुभव करता है।56 ___व्यवहारभाष्य के अनुसार आलोचना (शोधि) से आठ गुण प्रकट होते हैं 57_ लहुआल्हादीजणणं, अप्परनियत्ति अज्जवं सोही। दुक्कर करणं विणओ, निस्सल्लत्तं व सोधिगुणा ।।317।। ___1. लाघवता- जैसे बोझा उठाने वाला सामान को नीचे उतारकर हल्केपन का अनुभव करता है वैसे ही आलोचक कर्म रूपी भार से मुक्त होने के कारण भारहीन की भाँति हल्कापन महसूस करता है। 2. आल्हाद उत्पत्ति- आलोचना द्वारा अतिचार जन्य ताप का शमन होने से प्रमोद-आनन्द उत्पन्न होता है।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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