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आलोचना क्या, क्यों और कब ?... 91
गुरु के प्राप्त होने पर, तीर्थ में, तप के प्रारम्भ में, किसी महोत्सव के आरम्भ या अंत में- इनमें से किसी भी काल में आलोचना कर सकते हैं।
श्राद्धजीतकल्प के अनुसार जघन्य से पक्ष, चार मास एवं एक वर्ष पश्चात तथा उत्कृष्ट से बारह वर्ष पश्चात निश्चित आलोचना करनी चाहिए। सामान्य आलोचना तो रात्रिक- दैवसिक प्रतिक्रमण में प्रतिदिन हो जाती है। पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण विशेष आलोचना की अपेक्षा से है। पूर्व मुनियों ने अतिचार न लगा हो तो भी पाक्षिकादि में आलोचना की है अतः पाक्षिक आदि में आलोचना करना जिनाज्ञा है। जिस प्रकार जल का घड़ा प्रतिदिन साफ करने पर भी उसमें थोड़ी गन्दगी रह जाती है अथवा घर को प्रतिदिन साफ करने पर भी उसमें थोड़ी धूल रह जाती है उसी प्रकार नित्य प्रति आलोचना करने के उपरान्त भी विस्मरण और प्रमाद के कारण किंचित दोषों का रह जाना सम्भव है, अतः उपर्युक्त कारणों से पाक्षिक आदि पर्वों में अवश्य आलोचना करनी चाहिए। विधिपूर्वक सम्यक् आलोचना के सुपरिणाम
आलोचना कैसी करनी चाहिए ? सम्यक आलोचना का स्वरूप क्या है ? इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का यथातथ्य स्वरूप बतलाते हुए नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी कहते हैं कि
जह बाल जंपतो, कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा, मायामयविप्पमुक्को ।।
जैसे एक बालक अपने कार्य - अकार्य को सरलता से बता देता है वैसे ही साधक को माया और अहंकार से मुक्त होकर आलोचना करनी चाहिए। निश्छल हृदय से की गई आलोचना ही सम्यक् आलोचना कहलाती है। 52
उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक् आलोचना के सुफल की चर्चा करते हुए कहा गया है कि “आलोयणाएणं मायानियाणमिच्छादंसण सल्लाणं.... पुव्वबद्धं च णं णिज्जरेइ ।"
आलोचना से जीव अनन्त संसार को बढ़ाने वाले एवं मोक्ष मार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले माया, निदान और मिथ्यादर्शन शल्य को निकाल फेंकता है तथा ऋजुभाव को प्राप्त होता है। वह अमायावी होता है इसलिए स्त्रीवेद और नपुंसकवेद कर्म का बन्ध नहीं करता और यदि वे पहले बंधे हुए हों तो उनका क्षय कर देता है |53
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