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90...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
तदनन्तर आलोचनाग्राही पुनः एक खमासमण देकर कहे- 'इच्छकार भगवन्! पसायकरी सोधि अतिचार आलोऊ' गुरु कहें- 'आलोएह।'
• उसके बाद आलोचक एक खमासमण देकर घुटनों के बल बैठ जाये। फिर दोनों हाथ जोड़ते हुए एवं मुखवस्त्रिका को मुख के आगे स्थापित कर गुरु साक्षी से एक सौ चौबीस अतिचारों की धीरे-धीरे आलोचना करे। जो भी दुष्कृत किए हैं तथा उनमें से जो भी याद हैं उन सभी को मंद और मधुर स्वर से कहें।
गुरु भी समभाव पूर्वक सुनकर हृदय में धारण करें तथा आलोचक द्वारा किए गए दुष्कृतों एवं परिस्थिति के अनुसार तद्योग्य तप आदि दसविध प्रायश्चित्तों को करने का आदेश दें। आलोचना न करने के दुष्परिणाम
आपराधिक वृत्तियों के दुष्परिणामों से बचने का एक सशक्त माध्यम है आलोचना। शास्त्रीय मतानुसार आलोचना करने से संसार परिभ्रमण का अन्त होता है तथा अनालोचित पाप से संसार का सृजन होता है। .. आचार्य वर्धमानसूरि ने आलोचना न करने के दुष्परिणामों के सम्बन्ध में कहा है कि यदि अपराधी व्यक्ति लज्जावश, प्रतिष्ठा, प्रमाद या गर्ववश, अनादर या मढ़तावश पापों की आलोचना नहीं करता है तो वह दोष की खान बन जाता है। पाप की आलोचना किए बिना ही कदाच उसकी मृत्यु हो जाए, तो उस पाप के योग के कारण उसको भवान्तर में दुर्बुद्धि की प्राप्ति होती है। दुर्बुद्धि के कारण वह जीव पुनः प्रचुर मात्रा में पाप करता है। उन पापों से वह सदैव दारिद्र्य एवं दुःख प्राप्त करता है। भव-भवान्तर में अंधकारपूर्ण नरकगति एवं पशुत्वरूप तिर्यंचगति को प्राप्त करता है तथा अनार्य भूमि में उत्पन्न होता है, रोगयुक्त
खण्डित अंगवाला होता है, प्रचुर मात्रा में पाप कार्य करने वाला होता है। उन पापों के दुष्प्रभाव से कुदेव, कुगुरु एवं कुधर्म के आश्रित हो जाता है। फिर पश्चात्ताप करने पर भी वह बोधिबीज को प्राप्त नहीं कर पाता है तथा निगोद आदि योनियों में उत्पन्न होकर कष्टमय जीवन व्यतीत करता है।49 आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट आलोचना का समय
सामान्यतया द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भावशुद्धि के दिन आलोचना का प्ररूपण करना चाहिए। यद्यपि पंचाशकप्रकरण50 एवं आचारदिनकर51 के अनुसार पूर्णिमा या अमावस्या के पाक्षिक दिन में, चार महीने में या एक वर्ष में, गीतार्थ