________________
आलोचना क्या, क्यों और कब? .... .93
3. आत्मपर निवृत्ति - आलोचना करने से आलोचक के स्वयं के दोष तो समाप्त होते ही हैं किन्तु उसे देखकर दूसरे भव्य जीव भी आलोचनार्थ तत्पर बनते हैं। इससे अन्य प्राणियों के दोष भी मिटते हैं।
4. आर्जव - अपने दोषों को प्रकट करने से माया-कपट का नाश और ऋजुता का विकास होता है ।
5. शोधि- दोष रूप मल का अपनयन होने से आत्मा की शुद्धि होती है। 6. दुष्करकरण - आलोचना अतिदुष्कर कार्य है । इसी कारण मासक्षमण जैसे कठोर तप की अपेक्षा भी 'प्रायश्चित्त' नाम का आभ्यन्तर तप दुष्कर कहा गया है। बाह्य तप के लिए आवश्यक शारीरिक वीर्य और तद्सहायक अंतरंग वीर्य प्रकट करना सुलभ है, परन्तु प्रायश्चित्त करने के लिए आत्मिक वीर्य का उल्लास प्रगट करना अत्यन्त दुष्कर हैं। निशीथचूर्णि में कहा गया है कि- "तं न दुक्करं जं पडिसेविज्जइ, तं दुक्करं जं सम्मं आलोईज्जइति । " 7. विनय— चारित्र विनय की सम्यक् आराधना होती है ।
8. निः शल्यता - छल, कपट, माया आदि शल्यों का उद्धरण होता है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में आलोचना का माहात्म्य संदर्शित करते हुए बतलाया गया है कि जिस प्रकार विरेचन से शरीर मल की शुद्धि किये बिना खायी गयी औषधि निरर्थक है उसी प्रकार आलोचना के बिना दुष्कर तपस्याएँ भी इष्टफल नहीं दे सकतीं।
इसी क्रम में प्रायश्चित्त का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है कि यदि साधक आलोचना करके भी गुरु द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त का अनुष्ठान नहीं करता है तो वह बिना सँवारे धान्य की तरह महाफलदायक नहीं हो सकता । आलोचना युक्त चित्त से किया गया प्रायश्चित्त मांजे हुए दर्पण की तरह निखरकर चमक जाता है | 58
इस वर्णन से अवबोध होता है कि आलोचना आत्मशुद्धि का अभिन्न अंग है। आलोचना एवं प्रायश्चित्त से बाह्याभ्यन्तर तत्त्वों को निर्मल एवं स्वर्ण की भाँति निर्दोष किया जा सकता है।
आचारदिनकर के अनुसार प्रायश्चित्त करने से सर्व पापों का शमन और सर्व दोषों का निवारण होता है। पुण्य एवं धर्म की वृद्धि होती है, जीव का दोष रूपी शल्य (काँटा) निकल जाता है, निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है, पुण्य का