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आलोचना क्या, क्यों और कब?...85 बिना अथवा अयतना से भूल हुई हो उसे आकस्मिक प्रयोजन कहते हैं।
इस प्रकार जो अपराध जिस प्रयोजन से हुआ हो वह सब आलोचना दाता के समक्ष प्रकट करने से आलोचना सम्यक् हो सकती है, अत: आत्मशुद्धि के इच्छुक साधकों को उक्त रीति से अपराधों का निवेदन करना चाहिए।41 5. आलोचना योग्य प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव
व्यवहारभाष्य के उल्लेखानुसार आलोचना देते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों को देखकर तथा दिशा का निर्धारण कर आलोचना देनी चाहिए। इन पाँचों के दो-दो प्रकार हैं- प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रशस्त द्रव्य आदि के सद्भाव में आलोचना करनी चाहिए, अप्रशस्त में नहीं।42
यहाँ प्रश्न होता है कि आलोचना काल में द्रव्य आदि शुद्धि का प्रयोजन क्या है? इसका मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आलोचना लेते समय यदि आस-पास का स्थान सुन्दर हो, वातावरण शान्त हो तो वह मन को शुभ भाव की ओर प्रवृत्त करने में सहायक होते हैं। शुभ पदार्थ शुभ भाव में निमित्त होने से प्रशस्त द्रव्य आदि में की गई आलोचना शुभ भाव की वृद्धि करती है इसलिए यथाशक्य अशोक आदि वृक्ष के नीचे अथवा मनोहर उपवन में आलोचना करनी चाहिए। ___1. द्रव्य शुद्धि- जिस प्रकार आलोचना लेते-देते समय बाह्य दृष्टि से सुन्दर वातावरण, इर्द-गिर्द उत्तम द्रव्य आदि का होना जरूरी है उसी प्रकार आलोचना के मुख्य दो अंग हैं- आलोचना गृहीता एवं आलोचना दाता- यह द्रव्य भी विशेष शुद्ध होने चाहिए। आलोचक पूर्वोक्त जाति सम्पन्नादि एवं संविज्ञादि गुणों से युक्त होना चाहिए। कदाचित आलोचक में आवश्यक सभी गुण न हों तो कम से कम पाप मुक्ति रूप संवेग भाव और आलोचना की शुद्धिभूत निष्कपट भाव- ये दो गुण तो होने ही चाहिये। आलोचना दाता गुरु भी उत्तम होने चाहिए। यदि पूर्वकथित योग्य गुरु की प्राप्ति तत्काल आस-पास के क्षेत्र में न हो तो शास्त्रों में कहा गया है कि उत्कृष्टत: क्षेत्र की दृष्टि से 700 योजन तक और काल की दृष्टि से बारह वर्ष तक गीतार्थ गुरु की खोज करें अथवा प्रतीक्षा करें। यदि अभिप्सित गुरु की प्राप्ति हो जाये तो उन्हीं के सान्निध्य में आलोचना करे और प्राप्ति न हो तो संविज्ञ पाक्षिक आदि पूर्व वर्णित क्रम से आलोचना करें।43