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84... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
पाँचवें महाव्रत में अतिरिक्त उपधि का ग्रहण या उपभोग किया हो, . उपकरणों में आसक्ति रखी हो इत्यादि ।
छठे व्रत में आहार लिप्त पात्र आदि अथवा औषधि आदि रात्रि में रखे हों, तो उसकी आलोचना करें।
उत्तर गुण विषयक आलोचना के सम्बन्ध में समिति और गुप्ति के विपरीत आचरण किया हो, शारीरिक एवं आभ्यन्तर शक्ति होने पर भी तपसेवा-स्वाध्याय आदि में उद्यम न किया हो, शक्ति को छुपाया हो तो उन सबकी आलोचना करें |
श्रावक धर्म की अपेक्षा से सम्यक्तवव्रत, बारहव्रत, पंचाचार सम्बन्धी अतिचारों एवं अठारह पापस्थानक आदि की आलोचना करनी चाहिए। 4. आलोचना का भाव प्रकाशन किस प्रकार हो?
आलोचना किस विधि से सम्यक् हो सकती है ? इस सम्बन्ध में आगम मर्यादा के अनुसार विचार करना चाहिए । आचार्य हरिभद्रसूरि ने आलोचना की सम्यक् विधि का क्रम बतलाते हुए कहा है कि आकुट्टिका, दर्प, प्रमाद, और आकस्मिक प्रयोजन के अनुक्रम से आलोचना करनी चाहिए ।
कल्प
1. आकुट्टिका - संकल्प पूर्वक पाप किया हो तो उससे व्रत निरपेक्ष के परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं इसलिए सर्वप्रथम संकल्पित पापों को प्रकट करें।
2. दर्प- कषायों की अधीनता से पाप किया हो तो दूसरे क्रम में तज्जनित पापों का प्रकाशन करें।
3. प्रमाद - फिर तीसरे क्रम में मद्य, विषय, कषायादि पंचविध प्रमाद से पाप किया हो तो उसका निवेदन करें।
4. कल्प- अशिव, उपद्रव, दुष्काल आदि विशेष परिस्थितियों में दूषित आहार लिया हो तो वह आलोचनीय नहीं होता, क्योंकि उस समय अपवाद का स्थान होने से वह कल्प रूप है। यद्यपि गुरु के सामने बताना चाहिए कि कल्प से अमुक प्रकार के दोषों का सेवन किया, जिससे गुरु उस स्थिति में हुई अयतना आदि का प्रायश्चित्त दे सकें तथा ऐसे स्थानों की आलोचना करने से आपवादिक स्थान के प्रति जुगुप्सा जीवंत रहती है।
5. आकस्मिक प्रयोजन- आकस्मिक प्रयोजन उपस्थित होने पर जैसेअग्नि, उपद्रव, बाढ़, भूकम्प आदि स्थितियों में कार्य - अकार्य का विचार किये