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आलोचना क्या, क्यों और कब?...83 से दोषों को कहना आसेवना क्रम कहलाता है। पहले छोटे दोष वाले अतिचारों को कहना, फिर स्थूल दोषरूप अतिचारों को कहना अर्थात पंचक आदि प्रायश्चित्त के क्रम से ज्यों-ज्यों प्रायश्चित्त की वृद्धि हो त्यों-त्यों दोषों को कहना विकट आलोचना क्रम कहलाता है। जैसे- सबसे छोटे अतिचार में 'पंचक' प्रायश्चित्त आता है, उससे बड़े अतिचार में ‘दशक' और उससे बड़े अतिचार में 'पंचदशक' प्रायश्चित्त आता है इस क्रम से दोषों को प्रकट करना विकट आलोचना क्रम कहलाता है।39
सामान्य रूप से आलोचना निम्न क्रम पूर्वक करें 40- मुनिधर्म की अपेक्षा से सबसे पहले प्रथम महाव्रत संबंधी आलोचना करनी चाहिए. उसमें भी प्रथम पृथ्वीकाय संबंधी आलोचना करें। जैसे
पृथ्वीकाय- मार्ग में चलते समय अस्थण्डिल भूमि को स्थण्डिल भूमि में, स्थण्डिल से अस्थण्डिल भूमि में, काली मिट्टी से नीली मिट्टी में, नीली मिट्टी से काली मिट्टी में संक्रमण करते हुए पैरों का प्रमार्जन न किया हो, सचित्त धूल से संसक्त हाथ या पात्र से आहार ग्रहण किया हो- इस प्रकार चिंतन करते हुए पृथ्वीकाय विराधना की आलोचना करें।
अप्काय- सचित्त जल से गीले या स्निग्ध हाथ आदि से भिक्षा ली हो, मार्गस्थ नदी आदि को अयतना से पार किया हो।
तेउकाय- अग्नि पर रखा हुआ या अग्नि संस्पर्शित आहार ग्रहण किया हो, विद्युत प्रकाशमान वसति में रहे हों आदि।
वायुकाय- शरीर, भक्त-पान आदि पर पंखे से हवा की हो, गर्मी से पीड़ित हो वायु के सम्मुख आसन लगाया हो आदि। __वनस्पतिकाय- बीज आदि का संघट्टा हुआ हो या तदयुक्त वस्तु ग्रहण की हो।
त्रसकाय- पाँच इन्द्रियों की वृद्धि क्रम से आलोचना करें। जैसे- बेइन्द्रिय यावत पंचेन्द्रिय प्राणी का संघट्टन-परितापन-उद्रावण आदि किया हो।
दूसरे महाव्रत में क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य या भय से झूठ बोला हो।
तीसरे महाव्रत में अदत्त वस्तु उठायी या ग्रहण की हो। चौथे महाव्रत में स्त्री या पुरुष का संघट्टन हुआ हो, पूर्व भोगों का अनुस्मरण किया हो, स्त्रियों के अवयवों का अवलोकन किया हो इत्यादि।