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________________ 86...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण यहाँ प्रश्न उठता है कि सद्गुरु प्राप्ति की खोज करते-करते आयुष्य बीच में ही पूर्ण हो जाये तो पाप शुद्धि किस प्रकार हो? इसके समाधान में शास्त्रकारों ने अत्यन्त मार्मिक बात कही है कि आलोयण परिणओ, सम्मं संपद्रिओ गरु सगासे । जड अंतरावि कालं, करेई आराहओ तहवि ।। शुद्ध आलोचना करने के लिए प्रस्थित हुआ साधक प्रायश्चित्त ग्रहण करने से पूर्व ही कालधर्म को प्राप्त हो जाये तो भी वह आराधक कहलाता है। . आध्यात्मिक दृष्टि से आलोचना के भाव रखने वाला भी आलोचक ही कहलाता है। सामान्य रूप से चंपक वृक्ष, शाली वृक्ष जैसे उत्तम वृक्ष और रमणीय उपवन में आलोचना करना द्रव्य शुद्धि है। क्षेत्र शुद्धि- आलोचना लेने के लिए स्थान भी योग्य होना चाहिए। जैसेइक्षुवन, शालीवन आदि शुद्ध क्षेत्र हैं वैसे ही निर्मल परमाणुओं से पावन जिनालय, तीर्थस्थान या महापुरुषों की साधना स्थली तथा धर्मानुकूल उपाश्रय आदि स्थानों पर आलोचना करना क्षेत्रशुद्धि है। _____काल शुद्धि- आलोचना के लिए दिन आदि भी शुद्ध होने चाहिए, क्योंकि प्रत्येक कार्य पर शुभ काल का प्रभाव पड़ता है। इसीलिए शुभ कार्य में मुहूर्त की अपेक्षा रखी जाती है। आलोचना भी अत्यन्त शुभ कार्य है। व्यवहारभाष्य के अनुसार आलोचना हेतु द्वितीया, तृतीया आदि प्रशस्त तिथियाँ, प्रशस्त करण और प्रशस्त मुहूर्त योग्य है। विधिमार्गप्रपा और आचारदिनकर के निर्देशानुसार दग्धा तिथियाँ, अमावस्या, अष्टमी, नवमी, षष्ठी, चतुर्थी और द्वादशी को छोड़कर शेष तिथियों में, चित्रा, अनुराधा, रेवती, मृगशिरा, हस्त, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, पुष्य, रोहिणी, स्वाति, अभिजित्, पुनर्वसु, अश्विनी, धनिष्ठा, श्रवण और शतभिषा- इन नक्षत्रों में शनि और मंगलवार को छोड़कर शेष वारों में तथा आलोचना दाता गुरु और आलोचक शिष्य के चन्द्रबल में आलोचना करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त क्षय तिथि, उग्र नक्षत्र और उग्र वार में आलोचना नहीं करनी चाहिए।44 मोक्षार्थी जीवों को आत्म शुद्धि के लिए प्रतिदिन आलोचना करनी चाहिए। यदि नित्य संभव न हो तो पक्ष में एक बार, उसके अभाव में चार महीने में एक बार अथवा वर्ष में एक बार तो अवश्य आलोचना करनी चाहिए।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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