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80...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
सद्गुरु शास्त्रवचन के आधार से प्रायश्चित्त रूप औषध प्रदान करते हैं। इस प्रायश्चित्त का सेवन यदि पथ्य के पालनपूर्वक हो यानी रोगवर्धक निमित्तों के परित्यागपूर्वक हो तथा प्रायश्चित्त रूप में दिया गया तप-जप-स्वाध्याय आदि प्रतिपक्ष भावनापूर्वक किये जायें तो जिस प्रकार सुवैद्य की औषधि से रोग का कारण ही नष्ट हो जाता है उसी प्रकार पापों के संस्कार जड़ से नष्ट हो जाते हैं।
सामान्यतया कोई व्यक्ति वैद्यक शास्त्र के अभ्यास से वैद्य बनता है वैसे ही चारित्र के परिपालन से जीव परमात्मा बनता है। किन्तु वैद्य संबंधी शास्त्रों का अध्ययन करने मात्र से सभी वैद्य निष्णात वैद्य नहीं बनते, उसके लिए विशिष्ट अभ्यास, अनुभव, कुशलता आदि आवश्यक है। उसी भाँति चारित्र धर्म के सेवन से भावसाधु तो अनेक हो सकते हैं, परन्तु अन्य जीवों के भाव रोगों को मिटा सके, वैसे गुरु तो कोई विशिष्ट गुण सम्पन्न आत्मा ही बन सकती है।
जिनके समीप आलोचना करके भाव आरोग्य की प्राप्ति हो सके ऐसे आलोचना दाताओं की चर्चा पूर्वाचार्यों ने अनेक स्थानों पर की है। स्थानांगसत्र के अनुसार आलोचना देने योग्य गुरु में निम्न 10 गुण होने चाहिए।33
1. आचारवान- आलोचनादाता ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यइन पांच आचारों से युक्त हो।
2. आधारवान- आलोचक द्वारा आलोचित या आलोच्यमान समस्त अतिचारों को जानने वाला एवं उसे अवधारण करने में समर्थ हो।
3. व्यवहारवान- आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत- इन पाँच व्यवहारों का ज्ञाता तथा इनके आधार पर प्रायश्चित्त देने में कुशल हो।
4. अपव्रीड़क- आलोचक लज्जामुक्त हो, नि:संकोच अपने दोषों को बता सके, उसमें मधुर वचनों से वैसा साहस उत्पन्न करने वाला हो।
5. प्रकुर्वी- प्रकटकृत अतिचारों का सम्यक् प्रायश्चित्त देकर आलोचक की विशोधि करने वाला हो।
6. अपरिस्रावी- आलोचक के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करने वाला हो। ___7. निर्यापक- आलोचना करने वाला बड़े प्रायश्चित्त का भी निर्वहन कर सके, ऐसा सहयोग देने वाला हो।
8. अपायदर्शी- सम्यक् आलोचना तथा प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यक् वहन न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला हो।