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आलोचना क्या, क्यों और कब?...79
संवेगवान् गुणांकाक्षी, तत्त्वज्ञः सरलाशयः। गुरु भक्तो निरालस्य स्तपः क्षमशरीरकः।।1।।
चेतनावान्स्मरन्सर्वं, निजाजीर्णं शुभाशुभम् ।
जितेन्द्रियः क्षमायुक्तः, सर्वप्रकटयन्कृतम् ।।2।। निर्लज्जः पाप कथने, स्वप्रशंसा विवर्जितः। सुकृतस्य परं गोप्ता, दुष्कृतस्य प्रकाशकः ।।3।।
पाप भीरू: पुण्यधन, लाभाय विहितादरः ।
सदयो दृढ़सम्यक्त्वः , . परोपेक्षाविवर्जितः ।।4।। एवं विधो यतिः साध्वी, श्रावकः श्राविकापि च ।
आलोचना विधानाय, योग्यो भवति निश्चितम् ।।5।। संवेगवान हो, गुणाकांक्षी हो, तत्त्वज्ञ हो, सरल हो, गुरु भक्त हो, आलस्य रहित हो, तप करने में सामर्थ्यवान् हो, बुद्धिमान हो, स्मृतिवान् हो, अपने शुभअशुभ कार्यों का प्रकाशन करने वाला हो, जितेन्द्रिय हो, क्षमावान हो, सब कुछ प्रकट करने की क्षमता वाला हो, पाप में निर्लज्ज हो, अपनी प्रशंसा का त्यागी हो, दूसरों पर किए गए उपकारों को गुप्त करने वाला हो, अपने दुष्कृत का ज्ञापक हो, पापभीरु हो, पुण्यरूपी धन के प्रति आदरभाव रखने वाला हो, दयावान हो, दृढ़सम्यक्त्वी हो, पर की उपेक्षा का वर्जन करने वाला हो- इन सभी गुणों से युक्त साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकाएँ निश्चित रूप से आलोचना करने के योग्य होते हैं।32 2. आलोचना सुनने अथवा प्रायश्चित्त देने योग्य गुरु कैसे हों?
यदि शरीर में कोई भयंकर रोग उत्पन्न हो जाये तो सामान्य वैद्य के पास न जाकर निष्णात वैद्य के समीप जाते हैं। यदि सामान्य वैद्य के समक्ष अपनी तकलीफें बताएँ और कदाच अज्ञानता के कारण विपरीत औषधियाँ दे दी जाए तो स्वयं के लिए हानिकारक भी बन सकती है, परन्तु कुशल वैद्य हो तो ज्ञान
और अनुभव के आधार पर ऐसी औषधियाँ देता है कि जिससे रोग जड़ मूल से समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा का भाव आरोग्य प्राप्त करने के लिए पाप रूपी रोगों को दूरकर आत्मा को शुद्ध बनाना चाहिए। आत्म आरोग्य प्राप्ति की औषधि आलोचना और प्रायश्चित्त है तथा सुवैद्य के समान योग्य गुरु के सामने आलोचना करने से अवश्य शुद्धि होती है।