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78... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
के रूप में गुरु प्रदत्त तप आदि अनुष्ठान भी कर सकती है इसलिए आलोचक में श्रद्धा गुण अत्यन्त जरूरी है।
यह
9. दुष्कृततापी - आलोचक स्वयं द्वारा किये गये अकार्यों का पश्चात्ताप करने वाला होना चाहिए। अतिचार सेवन रूप दुष्कृत्य से तपने वाला दुष्कृततापी कहलाता है। ऐसी आत्मा ही समुचित रूप से अतिचारों की आलोचना कर सकती है। संसारी आत्माओं से किसी तरह का दुष्कृत न हो, शक्य नहीं, इसलिए पाप सेवन का पश्चात्ताप होना जरूरी है। आलोचना करते हुए जो-जो पाप याद आयें उनके प्रति तुरन्त ही आलोचक अनुताप युक्त बन जाता है। पाप के प्रति किया गया पश्चात्ताप इस तरह के दुष्कृत्यों को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
10. आलोचना विधि में उत्सुक - विधिपूर्वक आलोचना करने की इच्छुक आत्मा ही आलोचना की अविधि का त्याग कर सकती है। शास्त्रों में आलोचना ग्रहण हेतु द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव संबंधी अनेक विधियाँ कही गई हैं। आलोचक इस विधि मार्ग को जानकर तदनुरूप आलोचना करने की इच्छा वाला होना चाहिए।
11. अभिग्रह इच्छुक - आलोचक ने जिन-जिन पाप कार्यों की आलोचना की है वे पापकर्म बार-बार न हों, तदर्थ यदि आलोचक में शक्ति हो तो जिन पापों का सेवन किया है तद्संबंधी अवश्य नियम करे तथा शक्ति न हो तो अन्य शक्तिशाली व्यक्तियों के नियम करने में सहयोगी बने, नियम करने वाले की अनुमोदना करे और स्वयं में उस प्रकार की शक्ति प्रगट हो वैसी भावना भायें। श्राद्धजीतकल्प 30 एवं विधिमार्गप्रपा 31 में आलोचक के लिए निम्न दस गुणों का होना अनिवार्य कहा गया है
जाइ-कुल- विणय- उवसम, इंदियजय-नाण- दंसणसमग्गो ।
ra अमाई, चरणजुया लोयगा भणिया । 122 ।।
1. जातिसम्पन्न 2. कुलसम्पन्न 3. विनयसम्पन्न 4. उपशमसम्पन्न 5. इन्द्रियजयी 6. ज्ञान सम्पन्न 7. दर्शनसम्पन्न 8. अपश्चात्तापी 9. अमायावी और 10. चारित्रसम्पन्न- इन दस गुणों से युक्त साधक आलोचना योग्य है। आचारदिनकर के अनुसार आलोचक में निम्नांकित योग्यताएँ होनी
चाहिए