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आलोचना क्या, क्यों और कब ? ... 77 से जिसे पाप कहा जाता है उस अधर्म स्थान को धर्म मान लेते हैं और वास्तविक धर्मानुष्ठान की उपेक्षा भी कर देते हैं। इसलिए आलोचक को देव-गुरु की कृपा प्राप्त कर स्वयं की बुद्धि को सूक्ष्म बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। कदाचित क्षयोपशम के अभाव में तद्योग्य सूक्ष्म बुद्धि उत्पन्न न हो तो सद्गुरु के वचनों के प्रति श्रद्धा रखते हुए तद्ज्ञापित धर्म-अधर्म को समझने का प्रयास करना चाहिए।
4. कल्पस्थिति - कल्प = मर्यादा, स्थित = स्थिर अर्थात मर्यादा में रहा हुआ। आलोचक आत्मा मुनि जीवन, श्रावक जीवन या सम्यग्दर्शन की मर्यादा से युक्त होनी चाहिए, क्योंकि मर्यादित स्वभावी आत्मा ही पाप के प्रति तिरस्कार भाव वाली होकर सद्आचरण द्वारा पापकृत्यों से निवृत्त भी हो सकती है ।
5. आनाशंसी-आशंसा अर्थात फल की इच्छा। आलोचना अनुष्ठान करने के प्रतिफल में मुझे इस जन्म में यश, प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो तथा परलोक में इस धर्म के द्वारा देवलोक आदि की सुन्दर सामग्री प्राप्त हो - इस प्रकार की आशंसा रखना निदान शल्य है और उससे अतिचार की प्राप्ति होती है। इसलिए आलोचना करते वक्त मेरे पाप कर्मों का नाश हो, इसके अतिरिक्त कोई इच्छा नहीं रखनी चाहिए।
6. प्रज्ञापनीय - जिसे आसानी से समझाया जा सके उसे प्रज्ञापनीय कहते हैं। यदि प्रज्ञापनीयता नाम का गुण न हो तो भूल होने पर भी व्यक्ति उसे न स्वीकार कर सकता है और न ही उसमें सुधार ला सकता है। इस वजह से उसकी आलोचना भी निरर्थक होती है, जबकि प्रज्ञापनीय दोष ज्ञापक का आभार मानता है, उसके प्रति प्रमुदित होता है तथा गलती को सुधारने हेतु प्रयत्न भी शुरू कर देता है ।
7. आज्ञावर्ती- जिसे पाप से छूटने की तीव्र तमन्ना हो उन सभी आत्माओं को एक योग्य गुरु स्वीकार करना चाहिए, जिनके समक्ष स्वयं की सर्व हकीकतों को कह सके और गुरु भी उन समस्त संयोगों का विचार कर उसे आत्महित का मार्ग बता सके। आलोचक को ऐसे गुरु की आज्ञा में रत रह चाहिए। क्योंकि योग्य गुर्वाज्ञानुसार जीवन जीने से प्राय: कोई अकार्य नहीं होता और सत्कार्य की प्रेरणा प्राप्त होती रहती है। इसलिए आलोचक आत्मा को आप्त पुरुषों का आज्ञावर्ती भी होना चाहिए ।
8. श्रद्धालु - प्रायश्चित्त क्रिया करने से ही मेरे पापों का नाश होगा, ऐसी श्रद्धावान आत्मा ही प्रायश्चित्त के लिए उत्साहित हो सकती है और प्रायश्चित्त