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________________ 76...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण • क्षमावान मुनि गुरु के कठोर संभाषण को भी सहज रूप से स्वीकार करता है। • दान्त मुनि प्रायश्चित्त तप का अच्छी रीति से वहन करता है। • अमायावी साधक बिना कुछ छिपाए आलोचना स्वीकार करता है। • अपश्चात्तापी साधक आलोचना करके पश्चात्ताप नहीं करता, अपितु. वह मानता है कि मैं भाग्यशाली हूँ जो प्रायश्चित्त स्वीकार कर विशुद्ध हो गया। आचार्य हरिभद्रसूरि ने आलोचक में निम्नलिखित 11 गुणों का होना आवश्यक माना है29_ संविग्गो उ अमाई, मइमं कप्पट्ठिओ अणासंसी पण्णवणिज्जो सद्धो, आणाइत्तो दुकडतावी ।।12।। तविहि समुस्सुगो खलु, अभिग्गहा सेवणादि लिंगजुत्तो। आलोयणापयाणे, जोग्गो भणितो जिणिंदेहि ।।13।। तीर्थंकर महापुरुषों ने 1. संविग्न, 2. माया रहित, 3. विद्वान, . 4. कल्पस्थित, 5. अनाशंसी, 6. प्रज्ञापनीय, 7. श्रद्धालु, 8. आज्ञावान, 9. दुष्कृततापी, 10. आलोचना विधि समुत्सुक और 11. अभिग्रह आसेवना आदि लक्षणों से युक्त साधक को आलोचना के योग्य कहा है। ___ 1. संविग्न- संसार की अनर्थता-निर्गुणता आदि का विचार करने से जिसके मन में निरन्तर यह भाव रहता हो कि 'किसी भी तरह से इस संसार से मुक्त होना है, मुझसे कोई प्रवृत्ति ऐसी नहीं होनी चाहिए जो मेरी भव भ्रमणा को बढ़ाये, मुझे कर्मभार से हल्का होना है' उसे संविग्न (संसारभीरु) कहते हैं। इस तरह संसारभीरु आत्मा ही आलोचना करने की अधिकारी है जिसे संसार परिभ्रमण का भय न हो वह आलोचना क्यों करेगा? 2. अमायी- जिस व्यक्ति में माया नाम का दूषण हो, वह स्वभाव से अच्छा न होने पर भी स्वयं को योग्य दिखाने की इच्छा रखता है। ऐसे मायावी पुरुष ने जिस स्थिति में पाप किया हो, उसकी यथायोग्य आलोचना नहीं कर सकता। इसलिए आलोचक मायावी नहीं होना चाहिए। 3. बुद्धिशाली- आत्मा ने जो पाप जिस विधि से किये हों, उस पाप को विवेकी और बुद्धिमान आत्मा ही समझ सकती है। बुद्धि विहीन आत्मा पुण्यपाप, धर्म-अधर्म का सूक्ष्म विभाग नहीं कर सकती, इसलिए बहुश: यथार्थ रूप
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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