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आलोचना क्या, क्यों और कब ?...75
5. द्रव्यादि की शुद्धि - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की शुद्धि पूर्वक आलोचना करनी चाहिए।
इन द्वारों का विस्तृत निरूपण निम्न प्रकार है
1. आलोचक में अपेक्षित गुण
इस जन्म में किये गये दुष्कृत्यों से मुक्त होने जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता है। जैसे राज्य संचालन के लिए इन्द्रियों की पूर्णता, बुद्धि की तीक्ष्णता, शरीर क्षमता आदि कई गुणों का होना आवश्यक है वैसे ही आलोचनकर्त्ता में जातिसम्पन्नता - संविज्ञता आदि अनेक गुण होना जरूरी है। स्थानांगसूत्र,27 व्यवहारभाष्य 28 आदि के अनुसार आलोचक निम्न दस गुणों से युक्त होना चाहिए।
आलोएंतो एत्तो, दसहि गुणेहिं तु होति उववेतो । जाति-कुल- विणय- नाणे, दंसण- चरणेहि संपण्णो खते - दंते अमायी य, अपच्छतावी य होंति बोधव्वे ।
1. जाति सम्पन्न 2. कुल सम्पन्न 3. विनय सम्पन्न 4. ज्ञान सम्पन्न 5. दर्शन सम्पन्न 6. चारित्र सम्पन्न 7. क्षान्त 8. दान्त 9. अमायावी 10. अपश्चात्तापी।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि आलोचक में इतने गुणों की अन्वेषणा क्यों ? इसका समाधान करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि
• जाति सम्पन्न मुनि या सामान्य साधक प्रायः अकृत्य नहीं करता। यदि अकृत्य हो जाए तो सम्यक् आलोचना कर लेता है।
• कुल सम्पन्न साधक प्रायश्चित्त का सम्यक् निर्वाह करता है ।
• विनय सम्पन्न सभी विनय प्रतिपत्तियों का निर्वाह करता है।
• ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति श्रुत के अनुसार सम्यक् आलोचना करता है। वह जान लेता है कि अमुक श्रुत से दिये गये प्रायश्चित्त द्वारा मेरी शुद्धि अवश्य होगी।
• दर्शन सम्पन्न प्रायश्चित्त शुद्धि में विश्वास करता है ।
• चारित्र सम्पन्न व्यक्ति अतिचार सेवन नहीं करता। वह चारित्रगत स्खलनाओं की सावधानी पूर्वक बार-बार आलोचना करता है ।