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74... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
काया से जो-जो पापकर्म हुए हों उन्हें यथावत गुरु के सामने कहना चाहिए, तभी गुरु योग्य प्रायश्चित्त देकर आत्मा की शुद्धि कर सकते हैं।
आलोचना करने से पहले आलोचक को सूक्ष्म बुद्धि से यह विचार भी करना चाहिए कि
• पाप करते वक्त मानसिक भाव क्या थे?
• कषायों की मात्रा कितनी थी ?
• पाप इच्छापूर्वक हुआ अथवा सहसात्कार अथवा अनाभोग से हुआ ?
• संयोगों के अधीन होकर पापकर्म किया अथवा पाप के संयोगों को मैंने ही उपस्थित किया ?
• किसी के आग्रह या परवशता से पाप किया अथवा स्वेच्छा से पाप प्रवृत्ति की ?
• किसी के निमित्त पाप किया अथवा स्वयं के स्वार्थ के लिए अथवा अपनी इच्छा के पोषण के लिए पापकर्म किया?
आलोचना की सामान्य विधि
इस भव में अभिज्ञता-अनभिज्ञता में किये गये पापों से मुक्त होने के लिए आलोचना करना आवश्यक है। जिस अध्यवसाय से जैसा पापकर्म किया हो उसे यथावत गीतार्थ गुरु के समक्ष प्रकट करने से तथा सद्गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त का वहन करने से पापों की शुद्धि होती है। यह आलोचना विधि व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य श्राद्धजीतकल्प, पंचाशकप्रकरण, विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर आदि ग्रन्थों में वर्णित है। पंचाशकप्रकरण में आलोचना विधि पाँच द्वारों के आधार पर कही गई है तथा विधिमार्गप्रपा में इस विषयक छह द्वारों का उल्लेख है।
पंचाशक प्रकरण के अनुसार पाँच द्वारों का सामान्य स्वरूप यह है1. योग्य - आलोचना करने वाला योग्य होना चाहिए ।
2. योग्य के समीप - जिस गुरु के सन्मुख आलोचना की जाये, वह भी योग्य होना चाहिए।
3. क्रम - आसेवना अथवा आलोचना के क्रम से आलोचना करनी चाहिए। 4. सम्यक् - अहंकार, निर्दयता आदि पूर्वक अकृत्य करते हुए स्वयं के जैसे अध्यवसाय उत्पन्न हुए उन्हें छिपाये बिना स्पष्ट बताना चाहिए।