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आलोचना क्या, क्यों और कब?...73 गीतार्थ गुरु के पास पापकर्मों की सम्यग् प्रकार से आलोचना करके एवं भाव शल्य से रहित बनकर अनंत जीवात्माओं ने अव्याबाध शाश्वत सुख प्राप्त किया है।
यहाँ यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है कि पाप क्रिया करने से जिस तरह के संक्लेश उत्पन्न होते हैं उससे अशुभ कर्मों का बंध होता है, किन्तु इन्हीं पाप क्रियाओं की गुरु समक्ष आलोचना करते वक्त जो पश्चात्ताप होता है उससे अशुभ कर्मों का बंधन टूटता भी है। अस्तु, आलोचना के माध्यम से पाप से छूटने की भावना रूप संवेग तीव्र होता है और उस संवेग से वचन विरुद्ध प्रवृत्ति के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्रवर्द्धमान संवेग के कारण जीव में सत्त्व पैदा होता है। इस सत्त्व के प्रभाव से ही आलोचक आत्मा भविष्य में पापकर्म न करने का प्रत्याख्यान भी कर सकती है।
यदि इहभव कृत आलोचना संपूर्णत: शुद्ध विधि से की जाये तो उन पापों के प्रति उत्पन्न हुआ तिरस्कार भाव जन्म जन्मांतर कृत पापों को भी समूल रूप से नष्ट कर सकता है। महापुरुषों ने कहा भी है कि एक पाप के प्रति उत्पन्न तीव्र जगुप्सा दुनियाँ के सर्व पापों के प्रति तीव्र जगप्सा पैदा करवाकर उसी भव में दृढ़प्रहारी, मृगावती जैसी महान आत्माओं की तरह मोक्ष पहुँचा सकती है। आलोचना करने से पूर्व मानसिक भूमिका कैसी हो?
सर्वप्रथम आलोचना करने वाली आत्मा को आलोचना अनुष्ठान के प्रति अत्यन्त बहुमान होना चाहिए। उसके हृदय में यह विचार पैदा होना चाहिए कि इस संसार में भटकते हुए मुझे उत्तम क्रिया करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। हे परमात्मन्! मैं धन्य हूँ, यदि इस धर्मानुष्ठान से मैं अनभिज्ञ रहता तो मुझ जैसी पापात्मा कैसे निर्मल बनती? ऐसे उत्तम विचारों से मन को तैयार करना चाहिए और मानस पटल पर किसी भी प्रकार का अशुभ भाव ठहर न जाये उसका ख्याल रखना चाहिए, क्योंकि आलोचना करते समय लज्जा, भय, माया, वक्रता आदि किसी प्रकार का अशुभ भाव रह जाये तो आलोचना करने के उपरान्त भी आलोचना से शुद्धि नहीं हो सकती, इसलिए निर्भीक होकर एवं लज्जा को दूरकर सरल भावों से आलोचना करनी चाहिए। ___ यदि कोई रोगी, डॉक्टर के सामने भय या लज्जा रखते हुए रोग संबंधी योग्य हकीकत न कहे तो वह रोगी की उचित चिकित्सा नहीं कर सकता। इसलिए डॉक्टर के सामने सब कुछ बताना आवश्यक है उसी प्रकार मन-वचन