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72... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
जा सकता। इसलिए मोक्ष इच्छुक साधक को पाप रूपी शल्य दूरकर शीघ्र आत्मा की शुद्धि करनी चाहिए ।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'विंशतिविंशिका' में यहाँ तक कहा है कि न यतं सत्यं व विसं व, दुप्पउत्तु व्व कुणइ वेयालो । जं तं व दुप्पउत्तं, सत्तुव्व पमाइओ कुद्धो ।।15/14।। जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तिमट्ठ कालम्मि । दुल्लहबोहियत्तं, अणं तसंसारियत्तं च । 115/15।। अप्पंपि भावसल्लं, अणुद्धियं रायवणिय तणएहिं । जायं कडुय विवागं, किं पुणा बहुआइं पावाई ।। अविधि से प्रयोग किया गया तीक्ष्ण शस्त्र, मृत्युकारक जहर, दुःसाधित वेताल, दुष्प्रयुक्त यंत्र अथवा तिरस्कार प्राप्त क्रोधाविष्ट सर्प या शत्रु किसी प्राणी का जितना अहित नहीं करता, उतना अहित अनुद्धरित भावशल्य (पाप) करता है | 26
यदि मृत्युकाल में भी सद्गुरु के समक्ष दोष प्रकाशन नहीं किया जाये तो संसार में अनंतकाल तक परिभ्रमण करना पड़ता है और बोधि की प्राप्ति भी दुर्लभ हो जाती है। इस कारण मुमुक्षु आत्माओं को गुरु के समीप पापों का आख्यान करना ही चाहिए।
राजपुत्र आर्द्रकुमार और वणिक पुत्र इलायची कुमार ने भाव शल्य की आलोचना नहीं ली तो उन्हें उससे भी कड़वा विपाक भोगना पड़ा तो फिर बहुत पापकर्म करने वाली आत्मा भाव शल्य को दूर नहीं करे तो उसकी क्या दशा हो सकती है ? पूर्व भव में आर्द्रकुमार और इलायची पुत्र की आत्मा ने चारित्र स्वीकार किया था। किन्तु कुछ दिनों पश्चात अपनी दीक्षित पत्नी साध्वी की ओर सराग दृष्टि से देखा और उस पाप की शुद्धि के लिए आलोचना नहीं ली। इससे आर्द्रकुमार को धर्म की प्राप्ति नहीं हुईं और अनार्य देश में जन्म लेना पड़ा तथा इलायची पुत्र को कु की प्राप्ति आदि कड़वे फल भोगने पड़े थे। इस कारण आत्म कल्याण के अभिलाषी प्रत्येक भव्यात्मा को भाव शल्य दूर करने के लिये कटिबद्ध होना चाहिये। इसलिए कहा है कि
निट्ठवि अपाप पंका, सम्मं आलोइअ गुरु सगासे । पत्ता अंणत सत्ता, सासय सुक्खं अणाबाहं । ।1।।