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आलोचना क्या, क्यों और कब ?... 71
तीन
1. स्थविरा ( प्रवर्त्तिनी या गीतार्था ), स्थविर (आचार्य) के पास = 2. स्थविरा ( प्रवर्त्तिनी या गीतार्था ), तरुण मुनि के पास = तीन 3. तरुण साध्वी (प्रवर्त्तिनी या गीतार्था ), स्थविर (आचार्य) के पास 4. तरुण साध्वी (प्रवर्त्तिनी या गीतार्था ), तरुण मुनि के पास = चार 5. समान वय वाली साध्वी साधु के पास = पाँच
=
अंतिम विकल्प में आलोचिका एवं आलोचना दाता के समान वय वाले दो सहायक तथा एक योग्य क्षुल्लक या क्षुल्लिका भी पास में रहें | 24 आलोचना करने की आवश्यकता क्यों?
आचार्य हरिभद्रसूरि रचित संबोधप्रकरण में आलोचना की उपयोगिता को दर्शाते हुए कहा गया है कि
तीन
लज्जाइगारवेणं, बहुस्सु अमएण वा वि दुच्चरियं । जे न कहेइ गुरुणं, न हु सो आराहगो भणिओ ।।28।। जो व्यक्ति लज्जा, स्थूल शरीर, तप अरुचि या श्रुतमद आदि कारणों से अपने दुष्कर्मों को गुरु के समक्ष प्रकट नहीं करता, वह सफल आराधक नहीं हो
सकता है। 25
जिस अध्यवसाय से जो पाप किये हों अथवा अनाभोग आदि से दुष्कर्म हुए हों उन सब को उसी रूप में गीतार्थ गुरु के सामने प्रकाशित किया जाए तो पाप के प्रति तिरस्कार भाव पैदा होता है, पाप कार्य के संस्कार टूटते हैं और पुनः पाप कर्म न करने के भाव दृढ़ बनते हैं।
योग्य गुरु के समीप आलोचना करने से संवेग और सत्त्वगुण की वृद्धि होती है तथा गुरु कृपा प्राप्त करने से पाप के निमित्तों को निष्फल करने की शक्ति प्रगटती है। आलोचना करने से पापाचार से मलिन हुई आत्मा शुद्ध होती है। इसलिए सर्व साधकों को योग्य गुरु के पास अवश्यमेव भव आलोचना या वार्षिक आलोचना करनी चाहिए ।
पूर्वकृत पापों की आलोचना किये बिना सम्यक् पुरुषार्थ जारी रखने पर भी साधना की इमारत लंबे समय तक टिक नहीं सकती। जैसे पैर में लगे हुए शूल को दूर नहीं किया जाये तब तक मुसाफिर पदयात्रा के लिए कितनी भी मेहनत करे पाँवों की गति में वेग नहीं ला सकता वैसे ही पाप रूपी काँटे को जब तक दूर नहीं किया जाये तब तक साधना की सीढ़ियों को तीव्रता से पार नहीं किया