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________________ 70...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण साध्वी के द्वारा आचार्य के समीप आलोचना करना, परपक्षीय आलोचना है। यह आलोचना निर्जन प्रदेश में न होकर जहाँ लोग दिखाई देते हों, वैसे एकान्त स्थान में की जाती है। इस आलोचना में साध्वी आचार्य का आसन स्थापित नहीं करती और स्वयं खड़ी होकर दोषों का प्रकाशन करती है।22 यहाँ उल्लेखनीय है कि स्वपक्षगत आलोचना चतुष्कर्णा और परपक्षगत आलोचना षट्कर्णा एवं अष्टकर्णा होती है। आचार्य अथवा प्रवर्तिनी के दो कान तथा आलोचक मुनि या साध्वी के दो कान- ऐसे चार कान तक सुनाई दे सकें, उस विधि से की जाने वाली आलोचना चतुष्कर्णा कहलाती है, इसी भाँति षट्कर्णा, अष्टकर्णा के बारे में भी समझना चाहिए। चतुष्कर्णा- आचार्य और आलोचक मुनि अथवा प्रवर्तिनी और आलोचक साध्वी की आलोचना चतुष्कर्णा होती है। इस वर्ग में अन्य मुनि या साध्वी की जरूरत नहीं रहती। अकेली साध्वी आचार्य के पास तो नहीं, परन्तु प्रवर्तिनी के समीप नि:सन्देह आलोचना कर सकती है। षट्कर्णा- एक वृद्ध आचार्य के पास एक साध्वी आलोचना करती है तब एक आचार्य, एक प्रवर्तिनी और एक आलोचक साध्वी ऐसे तीन के छह कान होने से षट्कर्णा आलोचना होती है। ___अष्टकर्णा- जब एक साध्वी युवा गीतार्थ या आचार्य के पास दोष विकटन करती है तब एक आचार्य और एक साधु, एक प्रवर्तिनी और एक आलोचक साध्वी- ऐसे आठ कान सुनने वाले होने से अष्टकर्णा आलोचना होती है। बृहत्कल्पभाष्य में आलोचक साध्वी जब परपक्ष में आलोचना करती है तब आलोचना काल में उसकी सहवर्त्तिनी के लिए 'भिक्षुणी' शब्द का उल्लेख है जबकि ओघनियुक्ति टीका में 'प्रवर्तिनी' शब्द का निर्देश किया गया है।23। उत्सर्गत: यदि प्रवर्तिनी की निश्रा प्राप्त हो तो उसी की उपस्थिति रहनी चाहिए, क्योंकि अन्य सहवर्ती मुनि या साध्वी के लिए भी विशिष्ट गुणों से सम्पन्न होना आवश्यक बतलाया गया है। इसका आशय है कि आलोचना काल में सामान्य मुनि या साध्वी मर्यादापूर्ति के रूप में उपस्थित नहीं रह सकते हैं। दशकर्णा- व्यवहारभाष्य के अनुसार आलोचना काल में तीन, चार अथवा पाँच व्यक्ति भी हो सकते हैं। इसमें पाँच विकल्प हैं
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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